SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 720
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ । १४ ] अभी तो नहीं हैं, तब फिर यह अनर्थक आवेश क्यों ? मानना पड़ेगा कि मानसिक कल्पना के द्वारा मोहम्मद साहेब की सत्ता (मौजूदगी ) वहां मान कर ही वैसा आदर प्रदर्शित किया जाता है, फिर मूर्ति पूजा हुई कि नहीं? कबर को पूजा, ताजिया रखना क्या मूर्तिका द्योतक नहीं है । ईसाई लोग भी गिरजे में शूली का चिन्ह बनाते हैं, ताकि उनके उपासकों में उनके कर्तव्य की यादगारी का भाव बना रहे यह भी प्रकारान्तर से मूर्ति पूजा ही है। अगर इन लोगों में पूजा भाव की मौजूदगो नहीं है तो बड़े आदमी (जो कि कोई महत्त्वपूर्ण काम कर चुके हैं ) का तैल चित्र ( प्रस्तर मूर्ति) क्यों बनाया जाता है ? सैकड़ों प्रस्तरे मूर्तियाँ ( Images ) तो कलकत्ते में ही दीख पड़ती हैं। इसी तरह देखा जाय तो प्रत्येक धर्म या सम्प्रदाय में मृत्ति की पूजा किसी न किसी रूप में हुआ करती है। कट्टर अमूर्ति पूजक कहते है कि अगर प्रस्तर मूर्ति पूजनेसे मुक्ति मिलती है तो सिलकी ही पूजा क्यों न की जाय १ पर उन्हें सोचना चाहिये कि मूर्ति और सिल दोनों पत्थर जरूर है, पर दोनों में भाव भिन्न भिन्न हैं, इसीलिये उसके फल भी भिन्न २ हुआ करते हैं। लड़की और पत्नी दोनों स्त्री जाति ही है, पर दोनों पर भिन्न दृष्टिकोण पड़ते हैं, सिल जिस काम के लिये है, उस काम के लिये उसका आदर है ही कहने का तात्पर्य यह है कि पूजा के सुदृढ़ सिद्धान्त पर कोई कीचड़ उछालकर अपने मलिन हृदय का ही परिचय देता है। इसमें कोई शक सन्देह की गुजाइश नहीं। मूर्ति पूजा जैन धर्म विनय मूलक धम है, जैन धर्म का सार विनय ही है। इसीलिये कहा गया है कि 'विणय मूले धम्मे पण्णते। इसलिये तीर्थकर भगवान् की मूर्ति का जितना भी विनय किया जाय जीव को उतना ही उच्च कोटिका आत्म कल्याण प्राप्त होगा। फलतः विनय करना या कराना महाधर्म है। इस विनय धर्म की तह में ऐसा विलक्षण रहस्य छिपा है, जिसकी बदौलत जीव एक दिन तीर्थङ्करकी उपाधि धारण कर सकता है, यही कारण है कि मूर्ति को पूजा द्रव्य और भाव के जरिये अनादि काल से होती चली मा रही है। अगर कोई शंका करता है कि द्रव्य पूजा अच्छी नहीं है, द्रव्य के द्वारा पूजा नहीं करनी चाहिये तो उसे समझना चाहिये कि द्रव्य के विना भाव का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता है, यह सुदृढ़ सिद्धान्त है। किसी भी व्यवहारिक या धार्मिक कार्य मे पहिले द्रव्य क्रिया करनी पड़ती है, उसके बाद भाव का उदय होता है। उदाहरण लीजिये कि अगर कोई दूकानदारी करना चाहता है तो पहिले उसे दूकान खरीदनी पड़ेगी या भाड़े पर लेनी होगी अथवा अपने पैसों से बनानी पड़ेगी। बाद में दूकान को प्रभावोत्पादक बनाने के लिये खूब सजाना पड़ता है। फिर खाता बही रखता है और दूकान का एक नाम रख कर विशुद्ध भाव से काम शुरु कर दिया जाता है अर्थात् लोगों में लेने देने का व्यवहार जारी हो जाता है। क चाल दूकान के आधार पर तमाम काम होने लगते हैं। अगर दुकान ही नहीं हो, बही खाते ही नहीं तो देन लेन ही किसके नाम हो? इसी तरह पहिले जीव को व्यवहार शुद्धि के लिये द्रव्य क्रिया करनी पड़ती है, बाद में भाव का उदय होता है। सामायिक करने वाले को पहिले द्रव्य सामायिकके लिये आसन, पूंजनी, मुंहपत्ति, क्षेत्र से स्थान, उपाश्रय वा शुद्ध स्थान, काल से जितना लगाने की इच्छा हो, उतना समय ग्रहण करना पड़ता है। इसी को द्रव्य सामायिक कहा जाता है। अगर कोई चाहे कि भाव सामायिक ही आये, द्रव्य सामायिक न करना चाहिये तो वह उसकी गलती है। अनादि अनन्तकाल गुजर गया, अबतक भाव सामायिक का प्रादुर्भाव न हुआ और कब होगा, यह भी निणीत नहीं है। इसलिये द्रव्य सामायिक करना ही चाहिये ताकि आधार पर एक दिन आधेय आ ही जायगा। (दीवार) रहेगी तो
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy