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________________ [ ६ ] (७) जब एक आदमी एक ही बाजू झुकता है तो वह गहरा उतरता ही जाता है और व्युत्पत्ति से अर्थ भेद से भी वह संतुष्ट नहीं होता और कहता है जव व्युत्पत्ति से अर्थ भेद मानें तब तो ऐसा क्यों न मानना चाहिये जब व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थ घटित होता है । तभी वह शब्द सार्थक है अन्यथा नहीं ऐसा अर्थ लेने पर हम साधु को मुनि नहीं कह सकते अर्थात् जिस समय वह मौन क्रिया में प्रवृत्त होगा तभी वह मुनि कहलायेगा । जब भिक्षा ले रहा होगा तभी भिक्षुक कहायेगा । जिस समय नौकरी करता हो उसी वक्त नौकर कहायेगा। सार यह है कि तात्कालिक सम्बन्ध रखने वाले विशेष और विशेष्य नाम का व्यवहार करने वाली मान्यतायें एवं भूत नयान्तरगत आती हैं । इस तरह सातों नयों का स्वरूप है । यह बात सहज ही समझ मे आ जाती है कि ये एक दूसरे से सूक्ष्मराति सूक्ष्म होते जाते हैं फिर भी एक दूसरे से अवश्य संबंधित हैं । अत: एक दूसरे से सामान्य और एक दूसरे से विशेष है। ऐसी परंपरा से नैगम से संग्रह और संग्रह व्यवहार विशेष को ग्रहण करता है तो उसे पर्यायार्थिक कहना होगा पर ऐसा नहीं क्योंकि किसी न किसी रूप में यह जाति को ग्रहण करते हैं काल को भी ग्रहण करते हैं इस लिये यह तो अवश्य है कि एक दूसरे की अपेक्षा से विशेष अवश्य है पर वैसे ये द्रव्यार्थिक ही है और शेष चार वर्तमान विपयक ही विचार करते हैं इससे पर्यायार्थिक हैं । इस तरह प्रमाण सिद्ध वस्तु के अंशों का सूक्ष्म विवेचन नयों द्वारा ही होता है । निक्षेप संसार में कोई ऐसी वस्तु नही है, जिसमें चार निक्षेप न हों। निक्षेप शब्द का अर्थ तो व्याकरणानुसार दूसरा होता है, जिसके फलस्वरूप निक्षेप वस्तु का स्वधर्म सिद्ध नहीं होता, क्योंकि 'नि' उपसर्ग पूर्वक 'क्षिप' प्रेरणे धातु से 'निक्षिप्यते अन्यत्र' इस व्युत्पत्ति से निश्चय रूप से क्षेपण किया जाय अन्य वस्तु में, उसका नाम निक्षेप है। यद्यपि व्युत्पत्ति को लेकर यह अर्थ ठीक है, पर यह कृत्रिम अर्थ में ही ऐसा माना जायगा स्वाभाविक अर्थ में तो संकेत के अनुसार निक्षेप वस्तु का स्वधर्म ही सिद्ध होता है । निक्षेप शब्द के अर्थ पर प्राचीन व्याख्याताओं का यही शंका समाधान है, पर विचार करने पर व्युत्पत्ति भेद से भी समाधान होता है, जैसे- 'निक्षिप्यते ज्ञातुरप्रे दीयते पदार्थोऽनेनेति निक्षेपः' अर्थात् 'बोद्धा के सामने पदार्थ जिस ( धर्म ) के द्वारा लाया जाता है, वही निक्षेप है । ऐसी व्युत्पत्ति और 'नि' उपसर्ग पूर्वक 'क्षिप' प्रेरणे धातु से 'हलश्च' इस सूत्र से करणार्थक वज् प्रत्यय करके अगर निक्षेप शब्द लेते हैं तो निक्षेप का अर्थ सीधा धर्म ही होता है। फिर दूसरा समाधान खोजने की आवश्यकता ही नहीं । निक्षेप चार होते हैं। नाम निक्षेप, स्थापना निक्षेप, द्रव्य निक्षेप, और भाव निक्षेप । यदि वस्तुओं के ये चार स्वधर्म रूप निक्षेप न माने जाय तो व्यावहारिक कार्यक्षेत्र में बडी ही संकट पूर्ण परिस्थिति उपस्थित हो जायगी । प्रत्येक पदार्थ का अपना अलग नाम होता है और उसके जरिये उस पदार्थ की पहिचान होती है । अगर नाम न हो तो किसी पदार्थ की पहिचान ही असम्भव है। किसी ने सच कहा है देखिय रूप नाम आधीना । रूप ज्ञान नहि नाम विहीना ॥ रूप विशेष नाम चिनु जाने । करतल गत न परहिं पहिचाने || इसलिये नाम वस्तुओं का स्वधर्म है। दूसरा स्थापना निक्षेप है। स्थापना आकार का पर्य्याय
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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