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________________ स्तवन-विभाग ४६७ Pleastbaraalotodonesioleta l licational Natokolhalorotalandleslan d k वनस्पति अति धण दीहा, दीठो नहिं दीदार । बिति चउरिंदी जल लिह, की गतिसन्नि पणधार, ॥ सखी० ३ ॥ सुरतिरि निरय निवास मां, मनुज अनारज साथ । अपजता प्रतिमास मां, चतुर न चढ़ियो हाथ ॥ स०४ ॥ एम अनेक थल जानिये, दरसन बिणु जिनदेव । आगम थी मत जानिये, कीजे निरमल सेव ॥स०५॥ निरमल साधु भगति लही, योग अवंचक होय । किरिया अवंचक तिम सही, फल अवंचक जोय ॥ स. ६ ॥ प्रेरक अवसर जिनवरूं, मोहनीय क्षय जाय । कामित पूरण सुरतरु, आनन्द धन प्रभु पाय | स०७॥ पुनः राग ___चन्द्रा प्रभुजी से ध्यान रे, मोरी लागी लगन वा । लागी लगन वा छोड़ी न छूटे, जब लग घटमें प्राण रे ॥ मो० १॥ दान सीयल तप भावना भावो, जैन धरम प्रतिपाल रे ॥ मो० २ ॥ हाथ जोड़ कर अरज करत है, बंदत सेठ खुशाल रे ॥ मो० ३ ॥ श्री सुविधि जिन स्तवन ( एम धन्नो धणने परचावे ) सुविधि जिणेसर पाय नमिने, शुभ करणी एम कीजे रे । अति घणो उलट अंग धरीने, प्रह उठी पूजी में रे ॥ सुविधि० १ ॥ द्रव्य भाव शुचि भाव धरीने, हरखे दहे जइये रे । पण अहिगम साचवतां, एक मना धुरि थइयं रे ॥ सु० २ ॥ कुसुम अक्षत वर वास सुगंधो, धूप दीप मन साखी २। अंग पूजा पण भेद सणी एम, गुरु मुख आगम झाखी रे ॥ सु० ३ ॥ एह फल दोय भेद सुणी जे, अनंतरने परम्पर रे। आणा पालण चित्त प्रसन्नी, मुगति सुगति सुर मंदिर रे ॥ सु० ४ ॥ फूल अक्षत वर धूप पइवो, गंध नैवेद्य फल जल भरी रे । अंग अग्र पूजा मलि अड़ विध, 1 भावे भविक शुभ गति वरी रे ॥ सु० ५॥ सन्तर भेद एकवीस प्रकारे, । महोत्तर शत भेदे रे । भाव पूजा बहविध निरधारी, दोहग दुरगति छेदे । र॥ सु० ६ ॥ तुरिय भेद पड़िवती पूजा, उपशम खीण संयोगी रे। 68 i Lalbrithakranakdharatarcascatorsaalaatka arikalotaradabalstallatane
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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