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________________ १६.१, ... ७. netkonkeviante kadfoJiwadatheekaseantywolpinkalins स्तवन-विभाग ४६५ 111.11.11.111.0111-11-11titLILatinatt - करी मारग संचरूँ, सेंगू कोई न साथ ॥ अभि० ४ ॥ दरसण दरसण रटतो जो फिरूं, तो रण रोझ समान । जेहने पिपासा हो अमृत पाननी रे, किम भाजे विष पान ॥ अभि० ५ ॥ तरस न आवे हो मरण जीवन तणो, सीझे जो दरसण काज । दरसण दुर्लभ सुलभ कृपा थकी, आनंद घन महाराज ॥ अभि० ६॥ श्री सुमति जिन स्तवन ॥ राग वंसंत तथा केदारा ॥ सुमति चरण कज आतम अरपणा, दरपण जिम अविकार । मति तरपण बहु सम्मत जाणीये, परिसर पण सुविचार ॥ सुमति० १॥ त्रिविध । सकल तनु धरगत आतमा, बहिरातम धुरि भेद । बीज अंतर आतम तीसरो, परमातम अविछेद ॥ सुमति० २॥ आतम बुद्धे कायादिक ग्रह्यो, बहिरातम अघ रूप। कायादिकनो हो साखी धर रह्यो, अंतर आतम 2 रूप ॥ सुमति० ३ ॥ ज्ञानानन्दं हो पूरण पावनो, वरजित सकल उपाधि । अतीन्द्रिय गुणि गण मणि आगरू, इम परमातम साध ॥ सुमति० ४ ॥ वहिरातम तज अंतर आतमा, रूप थई थिर भाव । परमातम तं हो आतम: भाव सूं, आतम अरपण दाव ॥ सुमति० ५॥ आतम अरपण वस्तु विचारतां, भरम टले मति दोष । परम पदारथ संपति ऊपजे, आनन्द धन रस पोप ॥ सुमति० ६॥ श्री पद्म प्रभ जिन स्तवन (चांदलिया संदेशो कहे जे रे म्हारा कंतने रे) पद्म प्रभ जिन तुझ आंतरूं रे, किम भांजे भगवंत । करम विपाके : कारण जोइने रे, कोई कहे मतिमंद ॥ पद्म० १॥ पयइ ठिई अणुभाग : प्रदेश थी रे, मूल उत्तर बहु भेद । धाती हो बंधूदय उदीरणा रे, सत्ता करम विच्छेद ॥ पद्म० २ ॥ कन कोपलवत् पयडि पुरुस तणी रे, जोड़ी अनादि खभाव । अन्य संजोगी जिहां लगे आतमा रे, संसारी कहेवाय ॥ ; पा० ३ ॥ कारण जोगे हो बंधे बंधने रे, कारण मुगति मुकाय । आश्रव a railert- I I
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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