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________________ ....... पूजा-विभाग वाञ्छितदायक, कुशलसूरिगुरोश्चरणौ यजे ॥७॥ ॐ ह्रीं श्रीं परम पुरुषाय परमगुरुदेवाय भगवतेजिनशासनोद्दीपकाय चरणकमलेभ्यो पुप्पं निर्वपामि स्वाहा। treatmethumbsiteshkkastatekhi-KashinataneKhirke k-Indiradit-ATN A धूप पूजा ॥ दोहा॥ धूप पूज कर सुगरुकी, पसरे परिमल पूर । जससुगंध जगमें वधे, चढेसवाया नूर ॥१॥ (कुबजाने जादृ डारा) अंबिका बिरुद वखाणे, गुरु तेरा अंबिका । तुम युग प्रधान नहिं छाने गढ गिरनारपे अंबड श्रावक, ऐसो नियम चित्त ठाणे । युग प्रधान इस जग में कोई, देखें जन्म प्रमाणे ॥ गु० २ ॥ कर उपवास तीन दिन बीते, प्रगटी अंबा ज्ञाने। प्रगट होय करमें लिख दीना, सुवरण अक्षर दाने । गु० ३ ॥ या गुण संयुत अक्षर बांचे, ताको युग वर जाने । अंबड मुलक मुलकमें फिरता, सूरि सकल पतवाने ॥ गु० ४ ॥ आया पास तुम्हारे सद्गुरु, कर पसार दिखलाने । वासक्षेप उन ऊपर डाला, चेला बांच सुनाने ॥ गु० ५ ॥ सर्व देव हैं दास जिनों के, मरुधर कल्प प्रमाने । युग प्रधान जिनदत्त सूरिश्वर, अंबड शीश झुकाने || गु० ६ ॥ उद्योतन सूरीने निज हाथे, चौरासी गछ ठाने । सो सब तुमरी सेवा सारे, चौरासी गछ माने ॥ गु० ७ ॥ जो मिथ्यात्वी तुमको न पूजे, सो नहिं तत्त्व । पिछाने । भद्रबाहु स्वामी तुम कीर्तन, कीनी ग्रन्थ प्रमाने ॥ गु० ८ ॥ युग प्रधान परिकीनि गंडिका, गणधर पद वृत्ति माने । कहे रामऋडिसार गुरू की. पूजा धूप कराने । गु० ९ ॥ ॥ लोक ॥ अगर चन्दन धूपदशाङ्गः, प्रसरितः खलु दिक्षु मधुम्रकैः ॥ सकल : मद्दल वान्छितदायक, कुशल नूरि गुरोश्चरणीयजे ॥१॥ॐ ह्रीं श्रीपरम पुरुषाय । -lalalaratirnatantanatantrnarthik AdinatorLadakitannintendr a LL..
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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