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________________ . ..... पूजा-विभाग .. . '.... A..LALAL LLLA.. L (प्रभु कं भजले मनुवा ) जिन नाम मुमग्ले जीवड़ा, नर भव हैं एही सार । नग्क तिबच अनि दुग्वनी कारण, निहां नहीं संस्कार रे ॥ जि० २ ॥ देवादिक बहु मुग्वनी कारण, समरण किण परकार रे ॥ जि० ३ ॥ अबहुं आयो प्रभुजी पानं. कम्णानिधि विरुद संभार रे ॥ जि. ४ ॥ दीन दयाल दयानिधि माहिव, नरकादिक दुःख वार रे ॥ जि. ५ ॥ श्री जिनचन्द्र अखय. समरणने यामें मंगल माल रे ॥ जि० ६ ॥ ॥ श्लोक ॥ सकल लोक विभाव विवर्जितं, सहज चेतन तत्त्व विचारकं । सुरभि भाजन गंधित सत्कृतं, जिन जिनां व्यवनं अमर्चये ॥७॥ ॐ ह्रीं परमान्मने चतुर्विंशति तीर्थकराणां त्र्यवन कल्याणकेभ्यः नैवेद्यं यजामहे स्वाहा । फल पूजा ॥ दोहा ॥ नाना फल सं पूजतां, मिटे दुकर्म विकार । निण कारण जिनगज की, पूज रची निहुंकाल ॥१॥ ( का मिलनी मन मेलं) ग्गामि मंगे अवधाग्यं दर्शन नेगे। श्री जिनगज दयानिधि माहिव. मज व उन्नागे ! ग्वा० २ ॥ तुम को नीन भुवन के नायक. वीन नहीं म्याग ॥ न्या. ६ || पोताणी करणी पिणधान्ये. नुम प्रम काज गा। न्या. ४ ॥ जो अपणी मेवर. कर जाणं. ना चहिये तुम : : न्या. : ॥ श्री जिनचन्द्र अग्यय दर्शन नं. जाणं होनी
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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