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________________ ४०५ mamaarn rrrrrrru โคนันได้มัด ใจคอจะได้ไมืองไทโตไก คั พ ขอพรได้ครองไตได้ไกลได้อได้โดให้คนได้ पूजा-विभाग (शजानो वासी प्यारो लागे मोरा राजिंदा) ___जिनजीरो ज्ञान सुहावे मोरा राजिंदा ॥ जि० ॥ जिन जीरो ज्ञान अनंतो सोहे, कहतां पार न आवे ॥ म्हा० जि० ॥३॥ सन्नी नर मन परयव जाणे ते मुनि ज्ञान कहावे ॥ म्हा० ॥ विपुलमतीने ऋजुमति । कहिये, ए दुय भेद लहावे ॥ म्हा. जि० ॥४॥ अंगुल अढिए ऊणो देखे, ते ऋजु नाम धरावे ॥ म्हा० ॥ संपूरण मानव मन जाणे, तेही विपुल कहावे ॥ म्हा० ॥५॥ मनगत भाव सकल ए भावं, ते चौथो मन भावे ॥ म्हा० ॥ एहनी महिमा नित नित कीजे, तिम भवि नाम धरावे ॥ म्हा जि० ॥६॥ जगजीवन जगलोचन कहिये, मुनिजन ए नित ध्यावे ॥ म्हा० दीक्षा ले जिनवर उपगारी, चौथो ज्ञान उपावे ॥ म्हा० जि० ॥७॥ मनकी संसा दूर करत हैं, सुणतां आण मनावे ॥ म्हा० ॥ तन मन सुचिकर पूजन । करले, जनम जनम सुख पावे ॥ म्हा. जि० ॥८॥ विविध कुसुमसे पूजा करतां, बोध लता उपजावे ॥ म्हा० ॥ सुमति कहे भवि ज्ञान आराधो, श्रीजिन देव बतावे ॥ म्हा० जि० ॥९॥ ॐ ह्रीं श्रीपरम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्री मनपर्यवज्ञान धारकेभ्यो अष्टद्रव्यंमुद्रां यजामहे स्वाहा । पञ्चम केवल ज्ञान पूजा ॥ दोहा ॥ प्रभु पूजा ए पंचमी, पंचमज्ञान प्रधान । सकल भाव दीपक सदा, पूजो केवल ज्ञान ॥१॥ फल दीपक अक्षत धरी, नैवेद्य सुरभि उदार । भाव धरी पूजन करो, पावो ज्ञान अपार ॥२॥ (तुम बिन दीनानाथ दयानिधि कौन खबर ले ) तूं चिदरूप अनूप जिनेसर, दरसन की बलिहारी रे ॥ तूं० ॥ निरमल केवल पूरण प्रगट्यो, लोकालोक विहारी रे । केवलज्ञान अनंत विराजे, क्षायक भाव विचारी रे ॥ तु० ॥३|| ज्योत सरूपी जगदानंदी, अनुपम โดดรัดดูดไกโดใน ไอใจคด ได้อยโดนใจใคร คนนะ ใหลใน สั งกัดไteไม่คดโกง , ระนอน 1 ใน trill ดร. f
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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