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________________ ३७० जैन - रत्नसार द्वितीय श्री अजित जिन पूजा ॥ दोहा ॥ जय जिनंद दिणंद सम, लखि भविजन विकसात । परमानंद सुकंद जल, विजया मात सुजात ॥१॥ ॥ राग ॥ ( आय रहो दिल बागमें प्यारे जिनजी, ) ● एक अरज अवधारिये अजित जिन एक अरज अवधारिये || अजित जिनेसर, जग अलवेसर, कूरम निजर निहारिये । तारण तरण विरुद सुणि तेरो, आयो शरण तिहारिये ॥ अजित जिन एक० २ ॥ चरम सिंधु भवभय जल निपतित, चरण पतित मोहे तारिये । परमानन्द धन शिव वनितानन, कंज मधुपान सुकारिये ॥ अजित० ३ ॥ चिर संचित घन दुरित तिमिर हर, तुम जिन भये तिमिरारिये । कहे शिवचन्द अजित प्रभु मेरे । एह अरज न विसारिये || अजित ० ४ ॥ ॥ काव्य ॥ सलिल चन्दन पुष्प फलब्रजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः विविध नव्य मधु प्रवरान्नकैः जिनममीभिरहं वसुभिर्य्यजे ||५|| ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद्अजित जिनेन्द्राय जलं, चन्दनं, पुप्पं, धूपं, दीप, अक्षतं, नैवेद्यं फलं, वस्त्रं, मुद्रां यजामहे स्वाहा । तृतीय श्री सम्भव जिन पूजा ॥ दोहा ॥ जय जितारि सम्भव सदा, श्री सम्भव जिनराज । सकल लोक जिण जीत लिये, जीतो मोह समाज ॥१॥ जैनाकर सेवां तेज सनूर | गुण पूर, भक्ति भाव पूरण उरधार, मुक्तिपुरी पथसार ||२||
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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