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________________ . ............................. ३६४ जैन-रनसार Fan नित भुवन विलसियो। असनं वसन सलिलादिक भक्ति, करिय संघनी करुणा रसियो ॥ मे० ४ ॥ द्रव्य समाधि प्रथम ए सुनिये, कह्यो जिन । लोकालोक दरसियो । सारण वारण चोयण प्रमुखे, पतित सुथिर करे धरम । हरसियो ॥ मे० ५ ॥ भाव समाधि द्वितीय ए कहिये, जो करे सो जिन चरण फरसियो। सकल संघ को जो उपजावत, दुविध समाधि दुरित तसु नसियो ॥ मे० ६ ॥ सुमति पंच त्रण गुपति धरे नित, सुरगिरिवरनो धीरज करसियो । जगत जंतु अघ तपत हरनकू अनुभव अमृत धार वरसियो ॥ मे० ७ ॥ ध्यान अनल करमेंधन दाहत, जिनसें परगुण परणति . खिसियो । ए मुनितरणि तेज सम दीपत, अमृत सुखामृतपान तरसियो ॥ मे० ८ ॥ इन पदमें ऐसे मुनि जनके, समरनतें हुय जग अवतसियो । ए पद सेवी नृपति पुरंदर, भये जगपति जिन हरष हुलसियो । मे०९॥ प्रयत्नानलप्रयत्न अस्पताल ल्यायत्रतत्र वस्त्र प्रस्त्र 'PRIMAaplizatistiantatistianilisakatranslatakhtaretakstatistrictiotishshtolasavantalil || काव्य ॥ yantalidasalishak सविदिया पारविकारदारी, अकारणा सेसजणोवगारी। महाभयातंकगणापहारी, जयो सदा शुद्ध चरित्तधारी ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं श्रीचारित्रधारिभ्यो नमः । अष्टादश ज्ञानपद पूजा ॥ दोहा.॥ श्रुत अपूर्व अहिवं सदा, अष्टादश पद मांहि । इण पद सेवक जिन तणा, सहु संकट भय जांहि ॥१॥ जैसी कुमतिनि शुद्धता, घोर तपे करि होय । तत् अनंत गुण शुद्धता, सुज्ञानीकी जोय ॥२॥ (दिलदार यार गबरू, राखुरे हमारा घटमें) जिन चन्द्र नाम तेरा, महाराज ज्ञान तेरा। जीते रे विकट भव भेटने, सदपूर्वज्ञान धरणा ॥ वितरे जिनेन्द्र चरणा, करे सर्व कर्म हरणा ॥ जी० ३ ॥ जगमें महोपकारी, भय सिन्धु वारि तारी, कुमतांधता विदारी ।। जी० ४ ॥ सहु भावनो प्रकाशी, परम स्वरूप वासी, परमात्म irihsikheATARAathtdainik.l-TiTar-ke-Pradwale
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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