SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 352
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Itata Yastouts to t जैन-रत्नसार ३३० आनंद पावें, नव भव शिव जावें देव नर भवजन्म पावें । ज्ञानविमल गुण गावें सिद्धचक्र प्रभावें, सवि दुरित सकावें विश्व जयकार पावें ॥९॥ || ढाल || इच्छारोधन तप नमो, बाह्य अभ्यन्तर भेदें जी । आतम सत्ता एकता, पर परणति उच्छेदें जी इ० ॥१०॥ ॥ चाल ॥ उच्छेद कर्म अनादि संतति जेह सिद्धिपणों वरे, शुभ योग संग आहार टाली भाव अक्रियता करें | अंतरमुहूरत तत्त्व साधे सर्व संबरता करी, निज आत्मसत्ता प्रगट भावें करो तपगुण आदरी ॥११॥ ॥ ढाल || इम नवपद गुणमंडलं, चउ निक्षेप प्रमाणें जी । सात नये जे आदरें, सम्यग्ज्ञाने जाणें जी इ० ॥१२॥ ॥ चाल ॥ निरधारसेती गुणे गुणनो करइ जे बहुमान ए । जसु करण ईहा तत्त्व रमणे, थाये निरमल ध्यान ए ॥ इम शुद्धसत्ता भलो चेतन सकल सिद्धि अनुसरें, अक्षय अनंत महंत चिदघन परम आनंदता वरे ॥ १३ ॥ ॥ कलश ॥ इम सयल सुखकर गुणपुरंदर सिद्धचकपदावली, सबिलद्धिविज्जा सिद्धि मंदिर भविक पूजो मन रली । उवज्झाय वर श्रीराजसागर ज्ञान - धर्म सुराजता, गुरु दीपचंद सुचरण सेवक देवचन्द्र सुशोभता ॥ १४॥ ॥ ढाल || जाणता त्रिहुं ज्ञान संयुत ते भवमुगति जिनंद । जेह आदरें कर्मख - पेवा, ते तपसुरतरु कंदें रे ॥ भ० सि० १५ ॥ करम निकाचित पिण क्षय जायें, क्षमा सहित जे करतां, ते तप नमिये तेह दीपावे, जिनशासन उजनंता रे ॥ भ० सि० १६ ॥ आमोसही पमुहा बहु लद्धि, होवे जासु प्रभावें । अष्ट महासिद्ध नवनिध प्रगटे, नमिये ते तप भावें रे ॥ भ० এMass.
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy