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________________ IskedIMAMTARAKxsekashankskakArASHTakekatokri.KATRE ३२० जैन-रनसार द्वितीय श्री सिद्धपद पूजा ॥दोहा॥ दुजी पूजा सिद्ध की, कीजे दिल खुशियाल । अशुभ करम दुरे टले, फले मनोरथ माल ॥१॥ - ॥काव्य ॥ दुट्ठ कम्मावरणप्पमुक्के, अणंत णाणाइ सिरी चउक्के । समग्ग लोगग्ग पयप्प सिद्धे झाएह णिच्चंपि समत्त सिद्धे ॥२॥ सिद्धाण माणंद रमाल याणं, णमा णमो णंत चउक्कयाणं । सम्मग्ग कम्मक्खय कारगाणं, जम्मंजरा दुक्ख णिवारगाणं ॥३॥ करी आठ कर्म क्षय पार पाम्या, जरा जन्म मरणादि भय जेण वाम्या । निरावरण जे आत्मरूपे प्रसिद्धा, थया पार पामी सदा सिद्धाबुद्धा ॥४॥ त्रिभागोन देहा वगाहात्मदेशा, रह्या ज्ञानमयजातिवर्णादिलेशा ॥ सदानन्दसौख्याश्रिता ज्योतिरूपा, अनाबाध अपून र्भवादी स्वरूपा ॥५॥ ॥ ढाल ॥ सकल कर्ममल क्षय करी, पूरण शुद्ध स्वरूपोजी। अव्याबाध प्रभुतामई, आतम संपत भूपो जी स० ॥६॥ ॥ चाल॥ जे भूप आतम सहज संपति, शक्ति व्यक्तिपणे करी। स्वद्रव्यक्षेत्र स्वकालभावे, गुण अनंता आदरी ॥ स्वस्वभाव गुणपर्याय परणति, सिद्धसाधन परभणी, मुनिराज मनसरहंस समवड, नमो सिद्ध महा गुणी ॥७॥ ॥ ढाल || समय पएसंतर अणफरसी चरम तिभाग विसेस । अवगाहन लही जे शिव पुहता, सिद्ध नमो ते असेस रे ॥भ० ८॥ पूर्व प्रयोगने गति परिणामे, बंधनछेद असंग। समय एक ऊरधगति जेहनी, ते सिद्ध प्रणमो रंग रे॥ भ. सि. ९॥ निरमल सिद्धशिलाने ऊपर जोयण एक लोकंत । सादि अनंत तिहां थिति जेहनी, ते सिद्ध प्रणमो संत रे ॥ भ० सि० १०॥ प्रचार प्रATrk
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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