SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Sakettreetkaarti teriakk-der-rakt-tarietkar aeraakersistarresistiane ३१६ जैन-रत्नसार अर्घ पूजा e-ketankikatta.stoletstreakiststalksexeathsolkata ttitutiNatiot-tantakkimaakhta-larfault-arhala hrewafaltadiularkonka-Aliasanta-lik ॥ दोहा ॥ इम अडविधि जिन पूजना, विरचे जे थिर चित्त । मानवभव ‘सफलो करे, वाधे समकित वित्त ॥१॥ ॥ ढाल ॥ अगणित गुणमणि आगर नागर वन्दित पाय, श्रुतधारी उपगारी | श्रीज्ञानसागर उवझाय। तासु चरणकज सेवक मधुकर पय लयलीन, श्रीजिन पूजा गाई जिनवाणी रसपीन ॥२॥ ॥ चाल॥ सम्बत् गुणयुत अचल इन्दु, हर्ष भरी गाइयो श्रीजिनेंदु । तासु फल सुकृत थी सकल प्राणी, लहे ज्ञान उद्योत धन शिव निसाणी ॥३॥ ॥ श्लोक ॥ इति जिनवरवृन्दं भक्तितः पूजयन्ति सकल गुणनिधानं देवचन्द्र स्तुवन्ति । प्रतिदिवसमनन्तं तत्त्वमुद्भासयन्ति, परमसहजरूपं मोक्षसौख्यं श्रयन्ति ॥४॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय श्रीमज्जिनेन्द्राय अर्घ यजामहे स्वाहा ॥९॥ चारों कोन में जल की धार देवे । अर्थ-इस पूर्वोक्त प्रकार से जो मनुष्य समस्त गुणों के निधान देववन्द्रजी उनकी तरह आनन्ददायक एवं श्रेष्ठ जिनेन्द्र को पूजन और स्तुति करते हैं तथा प्रतिदिन अनन्त परमतत्व है को मनन (विचार) करते है वे मोक्षरूपी परम सुख को सहज में ही प्राप्त कर लेन है। वस्त्र पूजा शको यथा जिनपतेः सुरशैलचूलाः, सिंहासनोपरि मितस्नपनावसाने । दध्यक्षतैः कुसुमचन्दन गन्धधूपैः, कृत्वार्चनन्तु विदधाति सुवरत्रपूजां ॥३|| तद्वत् श्रावकवर्ग एप विधिनालङ्कारवस्त्रादिकं, पूजां तीर्थकृतां करोति सततं शक्त्यातिभक्त्याहतः । नीरागस्य निरञ्जनस्य विजितागतस्त्रिलोकीपतः, : वस्यान्यस्य जनस्य निर्वृतिकृते क्लेशक्षयाकांक्षया ॥२॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने । anormer : TET storrotstatthar M
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy