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________________ ३१४ जैन-रत्नसार || ढाल || उज्जल अमल अखण्डित मण्डित अक्षत चंग, पुञ्जत्रय करो स्वस्तिक अस्तिक भावे रंग । निज सत्ताने सन्मुख उन्मुख भावे जेह, ज्ञानादिक गुणठावे भावे स्वस्तिक एह ||२|| Yeste to You's Yet todenn wwww. wwwwwwwwwwwwww wwwwwwwwww... ॥ चाल ॥ स्वस्तिक पूरतां जिनप आगे, स्वस्ति श्रीभद्र कल्याण जागे । जन्म जरा मरणादि अशुभ भागे, नियत शिव शर्म रहे तासु आगे ||३|| ॥ श्लोक ॥ सकल मंगलकेलि निकेतनं, परम मंगलभावमयं जिनं । श्रयत भव्यजना इति दर्शयन्, दधतु नाथपुरोऽक्षतस्वस्तिकं ||४|| ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय श्रीमज्जिने - द्रा अक्षतं यजामहे स्वाहा || ६ || अखण्ड चावल चढ़ावे । अर्थ-सम्पूर्ण मंगलके विहारस्थान तथा परम मंगल भाव जिनेन्द्र भगवान्को सब लोग आश्रय करते हैं यह दिखलाते हुये भव्यजन, हे नाथ आपके आगे कल्याण कारक अक्षत चढ़ावें । नैवेद्य पूजा ॥ दोहा ॥ सरस सुचि पकवान बहु, शालि दालि घृत पूर । धरो नैवेद्य जिन आगले, क्षुधा दोष तसु दूर ॥१॥ ॥ ढाल || लपनश्री वर घेवर मधुतर मोतीचूर, सिंह केसरिया सेविया दालिया मोदक पूर | साकर द्वाख सींघोड़ा भक्ति व्यञ्जन घृतसद्य, करो नैवेद्य जिन आगले जिम मिले सुख अनवद्य ॥२॥ ॥ चाल ॥ ढोवतां भोज्य परभाव त्यागे, भविजना निज गुणे भोज्य मांगे । अम्हमणो अम्हतणो सरूप भोज्य, आपजो तातजी जगत् पूज्य ||३||
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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