SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विधि-विभाग १३१ के गुप्त चिन्हों को खुला रखकर बैठना । ७९ वैद्यक करना । ८० बिक्री बट्टे तथा व्याज का काम करना । ८१ विस्तर ( शय्या ) बिछाकर सोना । ८२ पीने के वास्ते घड़े में पानी रखना । ८३ मन्दिर पर पतनाला गिराना | ८४ साबुन आदि से स्नान करना । ऊपर लिखी हुई चौरासी आशातनाओं में से कोई भी आशातना जिनमन्दिरमें* अथवा जिनमन्दिर के स्थान में नहीं करनी चाहिये । गुरु महाराज की तेतीस आशातनाएं १ गुरु महाराज के आगे बैठना । गुरु महाराज के आगे खड़े रहना । ३ गुरु महाराज के आगे चलना । ४ गुरु महाराज के नजदीक में बैठना । ५ गुरुओं के पीछे खड़ा रहना । ६ गुरुओं के आगे होकर चलना । गुरुओं के दोनों ओर पास में बैठना । ७ ८ गुरुओं के बराबर चलना । ९ गुरुओं की नकल करते हुए चलना । agnent aolo ko kes 'मन्दिरों में मूल गम्भारा समवसरण का रूपक माना गया है । उसमें तीर्थङ्कर भगवान की प्रतिमा को विराजमान कर पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपातीत अवस्थाओं को मान कर ही पूजन की जाती है । पिण्डस्थ अवस्था के तीन भेद होते हैं। जन्मावस्था, राज्यावस्था, श्रमणावस्था। जन्मावस्था में अंग पूजा की जाती है। अंग पूजा में पश्चामृत, नल, अंगलूहण, केशर, पुष्प । राज्यावस्था में अग्रपूजा की जाती है। अग्रपूजा में अक्षत, नैवैद्य, फल, अर्घ, वस्त्र, आरती । श्रवणावस्था में केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद पदस्थ अवस्था होती है। इसमें भाव पूजा होती हैं | भावपूजा में जिन भगवान् के गुणानुवाद ही करने चाहियें। निरञ्जन, निराकार, ज्योति स्वरूप. सिद्धावस्था को रूपातीत अवस्था कहते हैं । यह पूजन विधान श्राद्धनिकृत्य और देववन्दन भाष्य में है। महाकल्प में ऐसी आज्ञा है, शक्ति होते हुए साधु यदि जिन मन्दिर मे दर्शनार्थ नहीं जावे तो तेल ( तीन उपवास ) का दण्ड लगता है | श्रावक यदि शक्ति होते हुए जिन मन्दिर में दर्शनार्थ नहीं जावे तो वेले (दो उपवास) का दण्ड लगता है। ६
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy