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________________ विधि-विभाग १२३ हुआ सैकड़ों पेवन्द वाला तथा किसी भी निन्दनीय (काला, नीला) रङ्गका वस्त्र न पहने । पांचवीं शुद्धि - अशुचि पुद्गल रहित भूमि तथा पूजाकी सामग्री शुद्ध होनी चाहिये । छठी शुद्धि — पूजा की सामग्री में लगाया गया धन भी न्यायो - पार्जित होना चाहिये । सातवीं शुद्धि - (हड्डी) आदि उस जगह में न होनी चाहिये और विधिवत् पूजा करनी चाहिये । सूर्योदय होने के बाद ही पूजन करने का विधान शास्त्रों में है । अंग वसन मन भूमिका, पूजोपगरण हों सार । न्यायद्रव्य विधि शुद्धता, शुद्धि सात प्रकार ॥१॥ इस प्रकार शुद्धिकर मस्तक पर तिलक लगा पूजन की सामग्री को शुद्ध करे | प्रथम जलको जल शुद्धि मन्त्रसे 'ॐ आपो अप्पकाया एकेन्द्रिया जीवा निर्वद्या अर्हतः पूजायां निर्व्यथा सन्तु निष्पापा सन्तु सद्गतयः सन्तु नमोऽस्तु संघट्टन हिंसा पापमर्हदचने' इस मन्त्र को तीन बार पढ़ कर जल शुद्ध करे । केशर शुद्धि मन्त्र - अर्हतेनमः । इस मन्त्र से केशर शुद्ध करके ॐ आँ ह्रीं कों प्रतिमाजी के नव अंग भेटने चाहिये । पुष्पों को 'ॐ वनस्पतयो वनस्पतिकाया एकेन्द्रिया जीवा *जैन शासन में आचार्यों ने छ प्रकार के तिलकों का वर्णन किया है :ऊर्धपुण्डु ं त्रिपुण्डू' च त्रिकोण धनुषा कृति । बर्तुलं चतुरस्त्रं च षड् विधं जैन शासने ||१|| अर्थ :- ऊर्धपुण्ड्र ं (खड़ा तिलक ) त्रिपुण्ड्र (तीन लकीरोंयुक्त अर्ध चन्द्राकार ) त्रिकोण ( तीन कोनेवाला, त्रिभुजाकार ) धनुप ( धनुप की तरह) वर्तुलं (गोल) चतुरस्त्रं (चार वाला) ये छ प्रकार के तिलक जैन शासन में वर्णित है । जिन प्रतिमा की पूजन चार अवस्था मानकर की जाती है— जन्मावस्था, राज्यावस्था, दीक्षावस्था, केवलित्वावस्था | जन्मावस्था में जल, चन्दन, पुष्प आदि से पूजन होती हैं । राज्यावस्था मे अक्षत, नैवेद्य, फल, वस्त्र आदि से पूजन होती है इन पूजाओं को द्रव्य पूजन कहते है । दोक्षावस्था तथा केवलित्वावस्था मे भाव पूजा ही श्रेष्ठ मानी गई है ।
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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