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________________ जैनराजतरंगिणी बनने के लिये काश्मीर में प्रवेश किया। शूरपुर पहुँच गया। सुल्तान भी ससैन्य वहाँ पहुँचा। युद्ध के पूर्व पुत्र के पास सन्देश भेजा-'मेरे आदेश के बिना किस लिये देश में आये हो ? अपने भाग्योदय के बिना बल से किसने राज्य प्राप्त किया है।' (१:१:१२ ) पुनः वह दुहराता है -'विनाश उपस्थित होने पर, अभागों की पुत्र के प्रति विपरीत एवं परसेवक पर विश्वास बुद्धि हो जाती है।' (४:३९१) 'प्रिय उपदेश सुनने में कष्टप्रद लगते हैं, 'गत भाग्य प्राणियों को उपदेश की वाणी सुनने में अप्रिय लगती है और विपत्ति के उदय के समय मैंने क्यों नहीं सुना ? इस प्रकार दु:खी होते हैं।' (१:७:७५) पुण्यात्मा एवं परोपकारियों को भी भाग्य नहीं छोड़ता। 'तरुवरों के सदृश, अति उन्नत फलप्रद वितत (विस्तृत) एवं उन्नत शाखाओं से युक्त द्विजप्रियता के कारण ख्यात, शुभ मार्ग पर स्थित, सर्वजनोपयोगी, पृथ्वीधरों को, दुष्ट वायु, समान विधाता नष्ट कर देता है' (१:७:१८४) बुद्धि भी भाग्यकी अनुसरण करने लगती है । बुद्धि बदल जाती है।' (१:७:१९९) जैनुल आबदीन के पश्चात्, जब प्रजा सतायी जाने लगी, तो उसने राजा की मृत्यु का कारण दैव को दिया-क्या हम लोगों के रक्षक वृद्ध राजा को दैव ने मार डाला?' (२:१३४) श्रीवर इसी सिद्धान्त का दृष्टान्त के साथ प्रतिपादन करता है-'राम यदि घर से वन न गये होते, और बालि द्वारा पद अपहृत कर लिये जाने पर, सुग्रीव क्रोध से न लड़ता, तो रावण द्वारा प्रताडित होकर, (राम) लंका पहुंचकर, युद्ध में शत्रुओं को मारकर, विजेता राम कैसे होते ? विधाता ही कल्याण के लिये सुख एवं दुःख दोनो संयोग उपस्थित करता है । (४:५४३) मनुष्य सोचता कुछ है, होता है कुछ । योजना बनाता है। योजना अकस्मात् समाप्त हो जाती है । परिश्रम करता है । व्यर्थ हो जाता है । जिस कार्य में हाथ लगाता है । विफलता होती है जैसे कोई अव्यक्त शक्ति कार्य करती है । इसका वर्णन सुन्दर भाषा में श्रीवर करता है-'शीघ्र ही पूर्ण पदवी प्राप्त कर ली, यह शत्रु वर्गजीत कर लिया गया, अशेष कोश मेरे घर आ गया, भृत्य वर्ग वर्म युक्त हो गये, इस प्रकार वैभव से गर्वीला मनुष्य, जब तक सोचता है, तब तक, उसके विरुद्ध हुआ विधाता, स्वप्नवत् सब नष्ट कर देता है।' (३:४०९) 'उद्यान में चंचरीकों के समान, महोदधि में कुल्याओं के समान, स्त्रियाँ एवं सम्पत्तियाँ भाग्यशाली के पास जाती हैं।' (३:१६६) 'सूर्यवार के दिन नृपालय को नहीं जाना चाहिए-तुम्हारे साथ द्रोह होगा-'इस प्रकार स्वप्न में पिता के कहने पर भी दैवविमोहित होकर वह चला गया।' (४:२९ ) मनुष्य की मृत्यु निश्चित है, ललाट रेखा में वह लिखी है। श्रीवर इसमें अटूट विश्वास करता था-'विधाता के विधान के अनुसार प्राणी का मरण निश्चित है, उसी प्रकार अवश्यम्भावी को कौन अन्यथा करने में समर्थ हो सकता है ? (४:१५२) विधाता के प्रतिकुलता के विषय में लिखता है-'जबतक राजा एवं प्रजा पर विधाता प्रतिकूल रहता है, तब तक दायाद (उत्तराधिकार) से उत्पन्न दुःख स्थिति सैकड़ों उपायों से दूर नहीं होती, दुष्ट व्याधि (मानसिक कष्ट) शरीर के विनष्ट कर दिये जाने पर औषधियों के प्रयोग से जड़ जमाये रोग, कैसे दूर हो सकते हैं ?' (४:५५३) भावी को कोई नहीं रोक सकता। इस मत पर श्रीवर दृढ़ है--'वाण वर्षा मध्य, अश्व रोककर, मसोद नायक ने प्राण त्याग कर दिया । भावी कौन लाँध सकता है ?' (४:५९७) बहराम खां ने अपने लीला के लिए जिस राजवास को बनवाया था, वही उसके बन्धन के लिये काम आया। भवितव्यता को कौन जान सकता है ?' (३:१२२) उसी राजवास में उसने राज सुख प्राप्त किया। ऐश्वर्य
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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