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________________ ४२ जैनराजतरंगिणी राजतरंगिणीकारों ने कवि प्रशंसा की परम्परा का निर्वाह किया है। जोनराज का कवियों के प्रति रोष प्रकट होता है । दोष देता है। उन्होने राजाओं का जीवन वृत्त क्यों नही लिखा ? अतएव जोनराज ने कवियों की स्पष्ट रूप से बन्दना नहीं की है। उद्देश्य : चारों राजतरंगिणीकारों के रचना का उद्देश्य भिन्न है। कल्हण का उद्देश्य राजतरंगिणी को इतिहास के साथ उपदेशात्मक ग्रन्थ बनाना था। वह स्वयं लिखता है-'उसकी राजतरंगिणी भविष्य के राजाओं का मार्ग निर्देशन करेगी' (रा:१:३१) जोनराज का उद्देश्य सर्वथा भिन्न था-'राजपथिकों के दर्प पलानि से समुत्पन्न, ताप परम्परा को हरने के लिये, भविष्य में फलप्रद काव्य म समरोपित किया है। (श्लोक ८) कवियों के उपयोग्य मेरी वाणी स्वान्तः सिद्ध के लिये ही है।। श्लोक १६) उसकी रचना का तात्कालिक कारण जैनुल आबदीन के सर्वाधिकारी श्री शीर्य भट्ट का आदेश था। वह लिखता है-'सभी धर्माधिकारों पर नियुक्त, दयालु श्री शीय भट्ट के मुख से सादर आज्ञा प्राप्त कर, इस समय राजावली को पूर्ण करने के लिये, अपनी बुद्धि अनुरूप, मेरा यह उद्यम है, न कि कवि होने की अभिलाषा।' (श्लोक ११, १२) जोनराज का उद्देश्य काश्मीर के इतिहास को अपने समय तक पूर्ण करने के साथ ही साथ, सुल्तान जिसका वह राजकवि। था, आदेश पालन, करना था। श्रीवर ने जोनराज की शेष रचना को पूर्ण करने के अतिरिक्त अपना उद्देश्य स्पष्ट किया है-'सज्जन लोग राज वृत्तान्त के अनुरोध से, मेरी वाणी सुने और अपनी बुद्धि से योजित करे। अथवा नप बत्तान्त के स्मरण हेतु, श्रम किया जा रहा है। ललित काव्य की रचना अन्य पण्डित करें (१:१:९,१०) किसी कारण से मेरे गुरु (जोनराज) ने जिसे नही कहा ( लिखा) था, उस अव शिष्ट वाणी को यथा मति कहँगा (लिखुंगा)। (१:१:१६) अनेक विपत्तियों तथा वैभव के स्मरण से, जैन तरंगिणी किसमें वैराग्य नहीं पैदा कर देगी।' (१:१:१८) श्रीवर तत्कालीन राजनीति से खिन्न हो गया था। पिता-पुत्र, भाई-भाई के संघर्षों ने काश्मीर की सुव्यवस्था बिगाड दी थी। स्वार्थपरता, पद लोलुपता, अर्थ मोह ने मनुष्य को पशु बना दिया था। किसी पर विश्वास करना कठिन था। श्रीवर को इस स्थिति से स्वय विराग हो गया था। उसने अपने विरक्त भाव को स्थान स्थान पर व्यक्त किया है-'कल्पान्त तक, स्थिरता की आशा से, कोटि-कोटि घन देकर, जो निर्माण किया गया, वह जलकर भस्म हो गया ।' (४:३२७) दृष्टिकोण : श्रीवर निरपेक्ष चिन्त्य विद् था। दूसरा कुछ, उस काल में हो भी नहीं सकता था। हिन्दुओं का स्तर समाज में ऊँचा नही था। राजनीति मे स्थान नहीं था । सुल्तान सैयिदों तथा विदेशी मुसलमानों से प्रभावित थे । विदेशी भाषा अरबी तथा फारसी पढने-पढ़ाने पर बल दिया जाता था। हिन्दुओं की स्थिति अच्छी नहीं थी। श्रीवर यद्यपि धर्म निरपेक्ष था, तथापि उसने विचारों को स्वतंत्रतापूर्वक प्रकट किया है। उसने हिन्दू आचार-विचार, संस्कार एवं परम्परा का गर्व करते हुए, समर्थन किया है। आलोचना प्रत्यालोचना नहीं करता। परन्तु अपनी बात स्पष्ट सरल शब्दों मे निर्भीकता पूर्वक व्यक्त करता है। वह अपने आश्रयदाता सुल्तानों से भयभीत नही था । जहाँ उनकी प्रशंसा करना चाहिए था, वहाँ प्रशंसा किया है। जहाँ आलोचना की आवश्यकता पड़ी है, कटु आलोचना में संकोच नही किया है। उसका दृष्टिकोण उदार है । वह व्यर्थ की
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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