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________________ भूमिका ३३ भाषा एवं साहित्य एक रूप लेने लगे। श्रीवर ने प्रबन्ध काव्य का बहुत उल्लेख किया है। यह प्रबन्ध का प्रथम काल माना जा सकता है । उसकी सर्वागीण उन्नति हुई सन् १५५०-१७५० ई० मध्य । काश्मीरी साहित्य मे गीत-गान तत्त्व का समावेश हुआ। हिन्दी, फारसी, भाषा में गीत सुने और गाये जाने लगे। जिनका स्पष्ट उल्लेख श्रीवर ने किया है। इसे गीत या द्वितीय काल काश्मीरी भाषा का मान सकते है। तत्कालीन काश्मीरी अनेक भाषाओं के समन्वय एवं मिश्रण की परिणाम थी। उस पर सीमान्तवर्ती, दरद तथा कोहिस्तानी भाषा का भी प्रभाव है । कुछ विद्वान् काश्मीरी की जननी इबरानी या हिब्रू का मूल मानते है। उनका मत वैसा ही है, जैसा काश्मीर का नाम बाग सुलेमान तथा शंकराचार्य का तख्ते सुलेमान रखना है। काश्मीरी पण्डितों का पत्रा या जन्तरी आज भी प्रतिवर्ष शारदा लिपि मे प्रकाशित होता है । यद्यपि संस्करण संख्या कम होती जा रही है । कुछ विद्वान् शारदा की जननी ब्राह्मी लिपि को मानते है। शारदा लिपि के साथ काश्मीरियों का धार्मिक एवं ऐतिहासिक सम्बन्ध है। काश्मीर का नाम शारदापीठ तथा शारदा देश प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है । शारदा काश्मीर की अधिष्ठात्री देवी है। इसी कारण काश्मीर की लिपि का नाम देश एवं देवी के नाम पर, शारदा पडा था। इसका प्रचार उत्तर पश्चिम भारत काश्मीर, पंजाब तथा सिन्ध में था । आधुनिक शारदा, टाकी, लण्डा, गुरुमुखी, डोगरी, चमोली तथा कोची आदि लिपियों की मूल प्राचीन शारदा लिपि है । चम्बा एवं सेगुल मे प्राप्त दसवीं तथा ग्यारहवीं शताब्दी के शिलालेखों मे शारदा लिपि के प्राचीन रूप का दर्शन होता है । श्रीवर के समय लिपि शारदा थी। पन्द्रहवीं शताब्दी तक काश्मीर मे शारदा लिपि प्रचलित थी। फारसी लिपि का प्रसार सुल्तान जैनुल आबदीन के समय हुआ था। सुल्तान मुहम्मदशाह के समय यवन अर्थात फारसी लिपि राजकीय कार्यों में प्रवेश करने लगी। राजकीय पत्र व्यवहार फारसी में होने लगे। श्रीवर लिखता है । 'इस प्रकार लेख का अर्थ विचार कर, मार्गेश आदि महान् लोग यवन (फारसी) लिपि में लिखा इस प्रकार का पत्र भेजे।' (४:१५३) फारसी भाषा का भी श्रीवर को कुछ ज्ञान था। वह लिखता है-'फारसी भाषा के काव्य में प्रजाओं के दोष के लिए, जो कहा गया है, वह शाप (दण्ड) श्रीमद जैन राजा के देश में फलित हुआ।' (२:१३२) सुल्तान लोग स्वयं इस काल मे फारसी, काश्मीरी तथा हिन्दुस्तानी में गीत काव्य आदि की रचना करने लगे थे। संस्कृत का स्वतः राज कार्य एवं सर्वसाधारण की बोल चाल की भाषा में लोप होने लगा। मुगलों ने फारसी लिपि स्वीकार की। अरबी लिपि नहीं अपनाया। अरबी धार्मिक कार्यों, यथा मसजिदों में सुभाषित अथवा कब्रों पर स्मारक लिखने के लिए प्रयोग में लायी जाती थी। मुगल दरबार में बढ़ते इरानी उमराओं के प्रभाव से फारसी लिपि मुगलों ने स्वीकार कर ली थी। फारसी सरकार की अन्तर्देशीय भाषा हो गयी। मुगलों का काश्मीर मे शासन हुआ, तो फारसी लिपि का प्रचार राजकीय स्तर पर किया गया। मुसलमान लोग जो शारदा लिपि में कार्य करते थे, उन्होंने फारसी लिपि पढ़ना और पढ़ाना आरम्भ किया। मुगलों के पश्चात् अफगान शासन काल मे भी फारसी लिपि का ही प्रभाव था। अफगानिस्तान में फारसी लिपि प्रचलित थी। उसी लिपि में कारोबार होते थे। सिखों के समय फारसी लिपि यथावत् बनी रही । डोगरा शासन में नागरी लिपि का प्रचार बढ़ा ।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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