SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८ जैन राजतरंगिणी करता है, कभी कुटिल होकर जनता को ईति भीति में चकित कर देता है। इस प्रकार संसार को परिवर्तन पूर्वक नीचा-ऊँचा, फल देने वाले ग्रह के समान आश्चर्य है, विधि की गति विचित्र होती है।' (४:७२२) हिन्दू एवं मुसलमान दोनों ही शुभ लग्न में कार्य आरम्भ करते थे । यात्रा के लिए लग्न का विचार करते थे। मुसलिम बहुल देश हो जाने पर भी काश्मीर में पूर्व ज्योतिष संस्कारों का लोप नही हुआ था-'पुनः मार्गेश शुभ लग्न में निकल पड़ा और खान के बल भेदन का उपाय सोचने लगा।' (४:५३०) काश्मीर में ज्योतिष का अधिक प्रभाव था। मान्यता थी। सप्तग्रहों के अनुकूल, सातों दिन वस्त्रादि विभिन्न रंगो के धारण किये जाते थे—'सप्तग्रहों के अनुकूल सातों दिन, उसी वर्ण के वस्त्र से शोभित होने वाले बहराम, सुल्तान के समान, अष्ट योग प्राप्त करने वाले, उसकी भी तुच्छ जन की दशा हुई-लक्ष्मी को धिक्कार है।' (४:६२९) आयुर्वेद जान : श्रीवर चाहे कुशल वैद्य न रहा हो परन्तु उसे आयुर्वेद का ज्ञान था। तत्कालीन पण्डित परम्परा के अनुसार प्रत्येक पण्डित को सभी शास्त्रों का कुछ न कुछ अध्ययन करना पड़ता था। श्रीवर ने आयुर्वेद एवं चिकित्सा सम्बन्धी, जिन बातों का उल्लेख किया है, उनसे उसका आयुर्वेद ज्ञान प्रकट होता है। उनका प्रयोग उपमा के प्रसंग में किया है-'कुपुत्र के व्यसन के कारण सप्त प्रकृति से समृद्ध वह महामल्लेक पुर सप्तधातु पूर्ण शरीरवत् नष्ट हो गया ।' (१:७:६६) श्रीवर अपने आयुर्वेद ज्ञान का परिचय देता है क्योंकि सप्त धातु सम्बन्ध देह सदृश, सप्ताग ऊजित, राज को त्रिदोष के समान मेरे इन तीनों पुत्रों ने सन्दूषित कर दिया है।' (१७:११०) 'इसी समय दोष के समान अत्युग्र तीनो पुत्रों ने धातु सदृश, सप्त प्रकृति युक्त, देश को दूषित कर दिया।' (१:७:१८५) जैनुल आबदीन के अन्तिम अवस्था का सजीव वर्णन करता आयुर्वेदिक उपमा दी है-'मालूम पड़ता है, लक्ष्मी सदन, उसके बदन पर स्वेद परम्परा निकलती, भाग्य तरंगिणी के प्रवाह सदृश शोभित हो रही थी। निश्चय ही उसके जीवन रूपी रत्न का हरण करने से भीत तुल्य प्राण वायु, आयु का अपहरण करते हुए, क्षण मात्र के लिए गति तेज कर दी (१:७:२१८)।' सुल्तान की बीमारी का निदान भी श्रीवर करता है-'निरन्तर पान करने से राजा हैदरशाह का देह, बल एवं छवि क्षीण हो गयी थी। वह बात और शोणित रोग से ग्रसित हो गया था।' (२:१६०) उस समय आजकल के समान, औषधि एवं वैज्ञानिक चिकित्सा के साथ ही साथ, लोग मन्त्र एवं योग का भी आषय रोग शान्ति के लिए लेते थे। सुल्तान हैदरशाह की बीमारी में भी योगी से सहायता ली गयी थी-कोई योगी चिकित्सक, उसके विश्वस्त लोगों की बात न मानकर, विष से उग्र प्रभाव वाले औषध के प्रयोग से उसे कष्ट देने का प्रयास कर रहा था।' (२:१७१) विश्व के बड़े से बड़े व्यक्तियों को भी उनके अन्तिम काल में उचित चिकित्सा नहीं मिल सकी है। उनके पारिषद कुसंस्कारों के चक्कर में पड़कर, मृत्यु को और निकट बुला देते हैं। हसनशाह जैसे विद्वान् संगीतज्ञ के अन्तिम काल का वर्णन श्रीवर करता है'स्वामी को देखने नहीं देते थे, स्त्रियां ही अन्दर जाती थी। तत् तत् गारुडिकों के कहे गये, मन्त्र पाठ का निषेध करते थे। वैद्यों की कही चिकित्सा को अन्यथा कर देते थे। वहाँ भी अपने द्वारा बनायी गयी, खाने के लिए गुलिका (गोली) देते थे। (३:५४७-५४८) सुल्तान की बीमारी बढ़ती गयी। राज्य प्रासाद में स्त्रिय का प्रभाव था। उस स्थिति का श्रीवर वर्णन करता है-'उस समय मैं वैद्य गारुडिक एवं दृष्टकर्मा हूँगर्व करने वाले रुय्य भट्ट को स्त्री वैद्यों ने बुलाया। (३:५५०)
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy