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________________ २०३ १:७ : ६९-७४] श्रीवरकृता न मद्य नामुना तुल्यः शत्ररस्ति हि देहिनाम् । सेवितो हितकृच्छत्रुमद्य हन्त्यतिसेवितम् ॥ ६९ ॥ ६९. 'शरीरधारियो के लिये इस मद्य के समान कोई शत्रु नहीं है, सेवित शत्रु हितकारी होता है, और अति सेवित मद्य मार डालता है। मैरेयमदमत्ता यां कुर्वन्त्यनुचितां क्रियाम् । उन्मत्तोऽपि न तां कुर्याद् यत् स तस्मात् पलायते ।। ७० ।। ७०. 'सुरा से मदमत्त जन, जो अनुचित कार्य करते हैं, उन्मत्त भी वह नहीं करेगा, क्योंकि वह उससे भागता है। मद्यरूपेण वेतालः प्रविश्य हृदयं क्षणात् । न केषां हरते प्राणान् सहासरुदितक्रियम् ।। ७१ ।। ७१. 'मद्यरूप वेताल हास्य एव रोदन क्रिया युक्त, हृदय में प्रवेश करके, क्षणभर मे किनके प्राणों का हरण नही कर लेता? विषेण वामुना पुत्र पीतेनाप्तेदृशी दशा । पाहि स्वं त्यज सावध मद्यमद्यप्रभृत्यतः ।। ७२ ।। ७२. 'हे ! पुत्र !! विष रूप इसके पान से ऐसी (तुम्हारी) दशा हुई है, अतः अपनी रक्षा करो और आज से दोषपूर्ण इस मद्य को त्याग दो । न चेत् त्यजसि मूढस्त्वं व्यसनापितमानसः । अचिराद् वञ्चितो लक्ष्म्या प्रक्षीणायुभविष्यसि ।। ७३ ॥ ७३. 'यदि व्यसन में लीन मनवाले मूढ तुम नही त्यागते, तो शीघ्र ही लक्ष्मी रहित होकर, क्षीणायु होगे (मर जाओगे)।' श्रुत्वेति राजपुत्रः स स्वपितुः संमता गिरः । त्वदाज्ञां न विना मद्य पिबामीत्युत्तरं व्यधात् ॥ ७४ ।। ७४. इस प्रकार वह राजपुत्र अपने पिता की सम्मत वाणी सुनकर उत्तर दिया--'तुम्हारे आज्ञा के बिना मद्यपान नहीं करूंगा।' अतः जिस सत्र में भूत का प्रवेश हो जाता है पाद-टिप्पणी : वेतालः । शव पर अधिकार कर लेनेवाले भूत की ७१. (१) वेताल : भूतयोनि = पिशाच = संज्ञा वैताल से दी गयी है। वेताल एवं मृत मे प्रेत; जिस शव में भूत का प्रवेश हो जाता है, उसे अन्तर है। वेताल काबू में नहीं आता परन्तु भूत को भी वेताल कहते है-वे वायौतालः प्रतिष्ठा यस्यासौ वश या काबू में किया जा सकता है ।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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