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________________ १८८ जैनराजतरगिणी कृत्वा सुखं सुरुचिरं सुचिरं विधाता दुःखं प वर्ष प्रदर्श्य जलदः कृषिकर्ष हेतुं तुं फलं वितनुते करका विकारम् ।। ९ ।। ९. विधाता चिरकाल तक सुख प्रदान कर, जनपद पर असह्य दुःख डाल देता है । जलद कृषि के कर्ष (जोतायी) हेतु वृष्टि करके, पुनः फल हर लेने के लिये, करकापात कर देता है । नरेशे निरुपद्रवे । सौराज्यसुखिते देशे अकस्माद् दुःसहान् जातानुत्पातान् ददृशुर्जनाः ॥ १० ॥ १०. सौराज्य से सुखी इस देश में, जिसमें राजा उपद्रव रहित था, अकस्मात दुःसह उत्पात' को उत्पन्न हुआ लोगों ने देखा । त्यातङ्कागमे अथोत्तरदिशा की वृश्चिक, मंगल का कर्क, बुध का मीन, गुरु का मकर, शुक्र की कन्या और शनि का मेष नीच राशि है । नीच राशि में ग्रह अशुभ फलदायक और उच्च में शुभ फलदायक होते है । अतएव यहाँ पर अनीचवर्तन कहा गया है । जनयत्यसाम् । सेतुर्हेतुः रात्रो सर्वक्ष धूमकेतुरदृश्यत ॥ ११ ॥ ११. रात को उत्तर दिशा में, 'इति' (अतिवृष्टि - अनावृष्टि आदि) के आगमन के लिये सेतु तथा सर्वजन क्षय हेतु धूमकेतु' दिखायी दिया। ( ३ ) राशि राशियाँ बारह है । चन्द्र एवं सूर्य राशिचक्र में चलते है । प्रत्येक राशि का नाम, उस राशि के तारा प्रतिरूप के अनुसार दिया जाता है । सूर्य एक वर्ष अर्थात् बारह मास में राशिचक्र का पथ पूरा करता है । वैविलोन मे १६ राशिया मानी गयी थी । चन्द्रमा की दैनिक गति के अनुसार चीनवालों ने राशिचक्र को २८ राशियों में विभक्त किया था। भारत में चन्द्रपथ २७ नक्षत्रों में विभक्त है । भारतीय मान्यता के अनुसार १२ राशियाँ - मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धन, मकर, कुंभ और मीन है । [ १ : ७ : ९-११ * पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का ९वॉ श्लोक है । पाद-टिप्पणी : उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ५३६वी पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का १०वाँ श्लोक है । १०. ( १ ) उत्पात : अनहोनी, अशुभ, संकट अनिष्ट सूचक, आकस्मिक घटना, ग्रहण, भूचाल, हलचल, सार्वजनिक संकट आदि की गणना उत्पातों मे होती है। जैन ग्रंथों में उत्पात २६वाँ ग्रह है । पाद-टिप्पणी : उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ५३७वी पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का ११वाँ श्लोक है । ११. ( १ ) धूमकेतु: द्रष्टव्य टिप्पणी १ : १ : १७४ । असंख्य केतुओं का वर्णन है । किन्तु समय-समय पर पुच्छल तारा के रूप में रात्रि से उदय होनेवाले केतु को धूमकेतु कहते है । यह धूम्रकेतु एक ही प्रकार का नही होता । पाद-टिप्पणी : ९. उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ५३५वी कभी बृहद् और कभी लघु रूप में उदय होता
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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