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________________ १७० जैनराजतरंगिणी [१:५:१०१-१०२ कुञ्जप्रतिश्रुतो मञ्जीतनादस्तदावयोः । अनुगीत इवानस्थैः किंनरै राजगौरवात् ॥ १०१॥ १०१. उस समय, हम दोनों के मंजुल गीतनाद की कुंज में होनेवाली प्रतिध्वनि, राज गौरववश वहाँ के किन्नरों द्वारा अनुगीत सदृश प्रतीत हो रही थी। क्षणं सरोन्तश्चरतो हिमवृष्टिनिभाद् विभोः। भक्तिप्रीतैरिवोन्मुक्तं देवैः कुसुमवर्षणम् ।। १०२ ॥ १०२. कुछ क्षण सरोवर में भ्रमण करते, राजा की भक्ति से प्रसन्न, देवो ने मानों हिमवृष्टि के व्याज से कुसुम-वृष्टि की। ( सन् १५६३ ई० ) ने इसकी व्याख्या की है। संस्कृतज्ञ के साथ ही साथ शास्त्रीय गान-पारंगत गीतगोविन्द समस्त भारत में लोकप्रिय है। महाप्रभु भी था। वह गीतगोविन्द के माधुर्य पर मोहित चैतन्य गीतगोविन्द गाते-गाते समाधिस्थ हो जाते होकर, स्वयं श्रीवर के साथ गाने लगा था। इससे थे। गीतगोविन्द के पश्चात संस्कृत में अष्टपदी एक बात का और पता चलता है। गीतगोविन्द तथा अन्य भारतीय भाषाओं मे गीतकाव्य प्रणयन बंगाल से काश्मीर तक सर्वप्रिय काव्य-गीत हो की परम्परा चल पडी थी। गया था। गीतगोविन्द के सम्बन्ध में अनेक गाथाएँ पाद-टिप्पणी : प्रचलित है। जयदेव कवि-'भय शिरसि मण्डनम' १०१. (१) किन्नर : किन्नौर अंचल के पद लिखकर रुक गये। पद बैठ नहीं रहा था। निवासी किन्नर कहे जाते है। हिमाचल प्रदेश में वह स्नान करने चले गये। इसी समय भगवान ने है। किन्नौर के पर्व में पश्चिमी तिब्बत, पश्चिम में आकर-'देहिपद पल्लवम' लिखकर, पद पूरा कर कुलू तथा स्पीति, दक्षिण मे टेहरी गढ़वाल, जन्वल दिया। स्नान कर लौटे, तो उनकी धर्मपत्नी ने कोट है। सतलज नदी की उपत्यका क्षेत्र में फैला आश्चर्यपूर्वक पूछा, इतने जल्दी कैसे लौट आये ? है। भूखण्ड लगभग ७० मील लम्बा तथा उतना ही अभी तो पद लिखकर, गये थे। जयदेव चकित हुए। चौडा है। इसकी कम से कम ऊँचाई समुद्र सतह से वह दौड़कर पद देखने लगे। भगवान का दर्शन ५००० फीट है। आबादी ११ हजार फिट की पत्नी को हुआ और उन्हे नहीं हुआ। कहकर अपने ऊँचाई तक मिल जाती है। कन्नौरी, गलचा तथा पत्नि के सौभाग्य की प्रशंसा की। एक और गाथा लाहौली स्थानीय भाषाएँ है। जम्बूद्वीप के सात है। एक मालिन एक खेत मे भुट्टा तोड़ रही थी। वर्षों में एक किंमपुरुष अथवा किन्नरवर्ष है। वे साथ ही साथ मधुर स्वर से गीतगोविन्द गाती अश्वमुख तथा संगीत कलाप्रिय कहे गये है । उनकी जाती थी । जयदेव ने देखा कि भगवान की प्रतिमा गान विद्या मे प्रसिद्धि मुद्रा प्राचीन काल से अबतक का वस्त्र फटा था। रहस्य खुला कि मालिन के रही है और है (जैन० : १ : ६ : ७; द्रष्टव्य : परिकोमल कण्ठ से गीतगोविन्द का गान सुनकर भग- शिष्ट 'किन्नर':रा० : खण्ड : १ पृष्ठ ११०)। किन्नर वान उसके पीछे-पीछे भाग रहे थे। भागने में संगीत में प्रवीण होते थे (भाग० ३ : १० : ३९) । उनका वस्त्र फट गया था। पुलह ऋषि के वंशज माने जाते है। कुबेर के साथ इस श्लोक से प्रकट होता है कि जैनुल आबदीन कैलाश पर रहते है। ब्रह्मा के परछाई से इनकी
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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