SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५८ जैनराजतरंगिणी आचार्यपुस्तकावाससहायान्नसमृद्धिभिः । पाठयन् सर्वविद्यानां वर्धयामास मण्डलम् ।। ६६ ॥ ६६. आचार्य, पुस्तक, आवास, सहायता, अन्न, समृद्धि द्वारा (छात्रों को) पढ़ाते हुये, सभी विद्याओं के मण्डल (राजा ने) विस्तृत कर दिया। न विद्यासुखयोः संधिस्तेजस्तिमिरयोरिव । इति व्यर्थं वचश्चक्रे मुनीनामभयप्रदः ।। ६७ ॥ ६७. मुनियों के अभयदाता राजा ने विद्या' और सुख मे, तेज और तिमिर के समान सन्धि नहीं होतो, इस बात को व्यर्थ कर दिया। सौराज्यसुखिते देशे विद्याभ्यासपरायणे । अकाङ्क्षीत् सर्वदारोग्यं नृपतेः स्वस्य चान्वहम् ॥ ६८॥ ____६८. सुराज्य से सुखी एवं विद्याभ्यास-परायण देश में, जनता प्रतिदिन अपने और राजा के सर्वदा आरोग्य की अभिलाषा करतो थी। राज्योत्पच्या नृपस्तादृक् तुष्टोऽभून्न प्रतिष्ठया । यथा पण्डितसामय्या यामग्र्यामविदद् गुणः ।। ६९॥ ६९. प्रतिष्ठा युक्त राज्योत्त्पत्ति से, राजा उतना सन्तुष्ट नहीं हुआ, जितना पण्डित सामग्री की प्रतिष्ठा' से, गुणों के कारण, जिसे वह सर्वोत्कृष्ट जानता था। पाद-टिप्पणी : प्रतीक है। सरस्वती तथा लक्ष्मी की गति विरोधी ६७. ( १ ) विद्या एवं सुख : विद्वान दरिद्र है। दिशा विरोधी है। उनमे सन्धि, मेल नहीं रहते है। उन्हें सुख नहीं मिलता। यह प्राचीन कहा- होती। इसी प्रकार प्रकाश एवं अन्धकार एक दूसरे वत है । सरस्वती का वाहन हंस है । लक्ष्मी का के विरोधी हैं, उनमें सन्धि नही होती। किन्तु राजा वाहन उल्लू है। पुरातन काल से कथा प्रचलित है धनी होकर भी, लक्ष्मीपति होकर भी, सरस्वती के कि लक्ष्मीपति विद्वान नहीं होता। सुख लक्ष्मी से प्रसाद का पात्र बन गया था। उसे विद्या के साथ मिलता है । हंस को दिन प्रिय है। उल्लू रात्रि में सुख प्राप्त था। निकलता है। प्रकाश में उसकी आँखें बन्द हो जाती पाद-टिप्पणी: हैं । प्रकाश से वह भागता है। हंस प्रकाश में सरोवर में भ्रमण करता है। उसका भ्रमण ही मन मे सुख ६९. (१) प्रतिष्ठा . सुल्तान विद्वानों की पैदा करता है। उल्लू की वोली एवं उसका प्रतिष्ठा किया। उन्हे दान किया। उनके निवास के घर में आना अशुभ माना जाता है। हंस शुभ विद्या, लिए, नौशहर में व्यवस्था किया (बहारिस्तान गुण का एवं उल्लू अशुभ, अप्रकाश एवं मूढ़ता का शाही : पाण्डु० : ४६ ए० तथा ४७ ए०)।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy