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________________ १५२ जैनराजतरंगिणी [१:५:५१-५४ यत्राधर्ममृगं हन्तुं शृङ्गनादमिषाद् ध्रुवम् । संमिलत्सारसारावं श्रूयते मृगयारवः ॥ ५१ ॥ ५१. जहाँ पर शृंगनाद' के व्याज से, अधर्म रूप मृग को मारने के लिये, मिश्रित ललकारपूर्ण, मृगया ध्वनि सुनी जाती है। सामोदकामनिर्मुक्तमोदका यत्र योगिनः। श्रमधर्मोदका जग्धेर्जाता राज्ञः प्रमोदकाः ॥ ५२ ॥ ५२. जहाँ पर, आनन्द निर्भर योगियों का भोजन के श्रम से, निकलनेवाला पसीना, राजा को प्रसन्न करता था। योगिस्फुरत्करक्लिष्टदधिदिग्धाशनच्छलात् । योगाच्छशिकलास्रावास्तत्रैवान्त इवायु तन् ।। ५३ ॥ कुलकम् ।। ५३. योगियों के हाथों मे लिप्त, दधिपूर्ण भोजन के छल से, मानो उसी बीच योग से शशिकला का स्राव ही, शोभित हो रहा था । कुलकम् । मारी नाम नदी तस्माद् वितस्तान्तरमागता । केवलं याभवत् पौरस्नानपानप्रयोजना ।। ५४ ।। ५४. वहाँ से वितस्ता में आयी मारी' (महासरित) नाम की नदी पुरवासियों के केवल स्नान-पान प्रयोजन हेतु हुई। और पूर्व दिशा का दिग्गज है । इसका रंग श्वेत तथा पाद-टिप्पणी : दाँत चार होते है। समुद्रमंथन से प्राप्त १४ रत्नों ५२. श्लोक के प्रथम पद के प्रथम चरण का मे एक रत्न है। इरावती का पुत्र होने के कारण पाठभेद सन्दिग्ध है। नाम ऐरावत पड़ा था। पाद-टिप्पणी : ऐरावत की पत्नी ऐरावती है। राप्ती नदी का भी एक नाम है। चन्द्रमा की एक बीथी है, ५३. कलकत्ता संस्करण का उक्त श्लोक जिसमें अश्लेषा, पुष्य और पुनर्वसु नक्षत्र पड़ते है। ४३९वीं पक्ति है । उसके पश्चात् 'कुलकम्' मुद्रित है। पाद-टिप्पणी : पाठ-बम्बई। पाठ-बम्बई । पाद-टिप्पणी: ५१. (१) शृगनाद : वन पशु के शिकार ५४. (१) मारी : श्रीवर को प्रतीत होता है करने के लिये 'हकवा' किया जाता है। शिकार को कि काश्मीर के प्राचीन नामों का ज्ञान कम था । उसने चारों तरफ से भेरी, नगाड़ा, शृंगनाद आदि कर महासरित का नाम मारी अर्थात वर्तमान 'मार' नाम शिकार स्थान पर घेरकर लाते हैं। वहाँ मचान पर नही दिया है, जो मारी तथा मार का मूल संस्कृत बैठकर अथवा पैदल शिकार किग जाता है। शिव नाम है। महासरित का अपभ्रंश मारी अथवा मार के गण श्रृंगनाद करते है। अतएव नाद पवित्र माना है (द्रष्टव्य : नवादरुल अखवार : पाण्डु०:४५ बी० जाता है। क०३ : ३३९-३४९, जैन०:३: २७७; ४ : २९) ।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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