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________________ जैन राजतरंगिणो राजधान्यन्तरीकृताः । जीर्णा देवालया यत्र धृत्यौन्नत्या निजस्थित्या सत्यार्था भूभुजा कृताः ॥ ४४. जहाँपर, राजा ने राजधानी के अन्तर्गत किये गये, जीर्ण उन्नति भाव के कारण निज स्थिति से, जिन्हें सत्यार्थ कर दिया। १५० यत्र सर्वतृणक्लेदनि भेंदोत्पन्नभूस्थली । संचारिण्युर्वरा राज्ञा सफलां विहिता घिया ।। ४५ ।। [ १ : ५ : ४४-४६ ४५. सब प्रकार के तृणो द्वारा प्रवाह का निर्धारण ( नियमन ) करने से उत्पन्न, संचरणशील भूमि को राजा ने अपनी बुद्धि से उर्वरा एवं फलवती बनाया। , ४४ ॥ देवालयो' को धृति एवं एकत्र देशे यत्रान्तः सत्रं श्रीजैनवाटिका । योगिनां पात्रपूजार्थं कृतं भोगाकृतस्मयम् ।। ४६ ।। ॥ पुरी का उल्लेख (जोन० ८७३) किया है। शुक ने पाद-टिप्पणी : उल्लेख नहीं किया है। श्रीवर ने सिद्धपुरी नाम दिया है। जोनराज के उक्त पलोक को ही एक तरह उसे शब्दों के हेर-फेर से उसने लिख दिया है। जोनराज ने 'सिद्ध' 'प्रसिद्ध' आदि शब्द का प्रयोग उक्त श्लोक में किया है । इससे अनुमान निकाला जा सकता है कि 'सिद्धपुरी' जोनराज वर्णित 'सिद्धि पुरी' है, जो डल लेक पर थी । डल लेक सुरेश्वरी क्षेत्र तक विस्तृत था सुरेश्वरी सर डल लेक का प्राचीन नाम है । जोनराज का सिद्धिपुरी तथा श्रीवर की सिद्धपुरी एक पुरी के नाम है । ४६. एक स्थान पर, योगियों के पात्र पूजा हेतु, जैनवाटिका' नामक अन्न सत्र, भोगों के कारण विस्मयावह था । पाद-टिप्पणी : ४४. (१) देवालय सुल्तान सिकन्दर बुत: चिकन द्वारा भंग किये मन्दिरों के जीर्णोद्धार की ही आज्ञा नही दिया बल्कि कुछ स्थानों पर उन्हे उसने स्वयं पुनः निर्माण कराया। कुछ का जीर्णोद्वार किया। उसने माफी भूमि ब्राह्मणों को दिया। राजाओं के समय ब्राह्मणों को जो दिया गया था, उसे नही लिया (म्युनिस० पाण्डु० ७० ए० बहारिस्तान शाही पाण्डु० : ४८ बी० ) । : : ४५. (१) संचरणशील भूमि तैरता क्षेत काश्मीरी मे 'राध' कहते है यह लगभग ६ फीट चौडा होता है । इसके चारों कोनो पर लट्ठा गाड़कर डल में बांध दिया जाता है । तरह तैरता कहीं भी ले जाया जा सकता है । घासयह नाव की फूस या नरकुल बांध कर उस पर मिट्टी रख दी जाती है (बहारिस्तानचाही पाण्डु० [को० ५३; तारीख रशीदी पृष्ठ ४३४ ) । . (२) उर्वरा बहारिस्तानशाही ( पाण्डु० ५१ बी० ) मे उल्लेख है कि सुल्तान ने दलदली भूमि का पानी निकलवा कर उसे कृषोपयोगी उर्वर बनवा दिया । पाद-टिप्पणी ४६. ( १ ) जैनवाटिका : इसका उल्लेख जोनराज तथा शुक दोनों नहीं करते श्रीवर ने भी इसका उल्लेल केवल एक बार यही किया है। जैनुल आबदीन ने अपने नाम से वाटिका लगवाई थी इसलिये नाम जैनवाटिका पड़ गया था। पीर हसन लिखता है - सुल्तान ने जैनगिर में
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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