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________________ १४६ जैन राजतरंगिणी धान्यो वारिधरो घरोपकरणोक्तः सदा जीवनैर्यः सिन्धोः सलिलं निरर्थकतया निन्ये निकृष्यान्वहम् । कान्तारेष्वफलेषु केषु रुचिरं मुञ्चत्यभीक्ष्णं यतस्तत्सेको दित सर्व सस्यविभवो लोकः सुखी जायते ॥ ३१. जीवन द्वारा धरा का सदैव उपकार हेतु उद्यत, वारिधर' धन्य है। जोकि प्रतिदिन निरर्थक सिन्धु के जल को लेकर, कुछ निष्फल बनो में, प्रचुर वर्षा करता है, उस जल के सेक से उत्पन्न, सर्व सस्य के वैभव से सम्पन्न, संसार सुखी होता है । लोके डल इति ख्यातं यदगाधं सरोवरम् । तस्य प्रतिष्ठाप्रस्तावाद् वर्णनं क्रियते मनाक् ॥ ३२ ॥ आ राजधान्या यद् दीर्घं सुरेश्वर्याः नौकारूढोऽचरन्नित्यं व्योम्नीवेन्दुः [१:५. ३१-३४ ३२. संसार में डल' नाम प्रसिद्ध जो अगाध सरोवर है, प्रतिष्ठा प्रस्ताववश, उसका कुछ वर्णन किया जाता है । ३३. राजधानी तक वहाँ सुरेश्वरी' का सरोवर है, नोकारूढ़ होकर, नित्य विचरण करता था । ३१ ॥ अरित्र पत्रा यत्रान्तः सोड्डीनाः पटसुन्दराः | पोता इवारुचन पोता राज्ञः शाकुनिकान्विताः ॥ ३४ ॥ पाद-टिप्पणी : ३१. ( १ ) वारिधर : मेघ = बादल । विक्रमांकदेवचरित में विल्हण कवि ने वारिधर शब्द का सुन्दर प्रयोग किया है- 'नव वारिधरोद्याहोभिर्भवितव्यं च निरातपत्वरम्यैः' ( ४ : ३ ) । पाद-टिप्पणी : ३२. ( १ ) डल : इसका प्राचीन नाम ज्येष्ठ रुद्र समीपस्थ 'सर' तथा 'सुरेश्वरी सर' था। आजकल इसे डल कहते हैं । राजतरंगिणी में प्रथम र 'डल' नाम का यहाँ प्रयोग किया गया है। 'डल्ल सर' (जैन : ४ : ११८ ) नाम से डल का सम्बोधन सरोवरम् । सुनिर्मले ||३३ ॥ उसमे निर्मलाकाश से चन्द्रमा सदृश, ३४. जिसमें अरित्र (डाड़ा-चप्पा ) रूप पत्रवाले उड़ते हुए पर से सुन्दर साकुनिकों से अन्वित, राजा के पोत (नाव) पक्षिसावक सदृश शोभित हो रहे थे । किया गया है । यह श्रीनगर के पूर्वदिशा में है । जैन : ४ : ११८ पाद-टिप्पणी : ३३. ( १ ) सुरेश्वरी सरोवर : डल लेक है । डल तिब्बती शब्द है जिसका अर्थ निस्तब्धता अथवा खामोशी होता है ( क० : ५ : ३७-४१ ६ : १४७; ८ : ५०६, ७४४; जोन० : ६०२ ) । श्रीनगर के पूर्व है । जैन० : १ : ५ : ४०, शुक० । पाद-टिप्पणी : ३४. ( १ ) साकुनिक : सगुन जानने वाले अथवा बहेलिया दोनों अर्थ यहाँ लग सकता है । पक्षी
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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