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________________ जैनराजतरंगिणी क्षितीशान्नैर्वराहक्षेत्रभूमिषु । अन्नस अस्तु नम्रशिराः शेषश्चित्रमिन्द्रोऽपि चाभवत् ।। १६ ।। १६. वाराहक्षेत्र' भूमि पर, अन्नसत्र में राजा के अन्न से शेषनाग का मस्तक, नत हो गया और इन्द्र चकित हो गये । १४० मत्स्येभ्यो नित्यतृप्तेभ्यः सूक्ष्माणामभयं ददौ । मत्स्यानामन्नसत्रेण वितस्तसिन्धुसंग || १७ ॥ १७. वितस्ता एवं सिन्धु के संगम' पर, अन्नसत्र से नित्य तृप्त, मत्स्यों से छोटी मछलियों को अभयदान दे दि अर्थिनामतितृप्तानां अपेक्ष्य विदधे छायां न [ १ : ५ : १६-१८ श्रीशङ्करपुरे नृपः । फलानि महीरुहाम् ।। १८ ।। अर्थियों के लिये, वृक्षों के फल की नहीं, १८. राजा ने शंकरपुर' में अत्यन्त तृप्त, छाया' की अपेक्षा की। चलाये गये अन्नसत्रों का उल्लेख आरम्भ करता है । परशियन इतिहासकारों के उल्लेख से पता चलता है कि श्रीनगर मे रैनवारी स्थान में हिन्दू राजाओं के काल से एक विशाल भवन में बाहर से आये तथा काश्मीरस्थ तीर्थो एवं देवस्थानों की यात्रा करनेवालों के लिये अन्नसत्र चलता था । जैनुल आबदीन ने एक भवन निर्माण कराकर, निवास तथा अन्नसत्र की व्यवस्था कर दिया ( तुहफातुल अहवाव : २२६-२२७; फ्तहाते कुवराविया: पाण्डु० २०० बी ) । बल्कि वस्थ स्थान वाराहक्षेत्र तथा वाराहतीर्थ कहा जाता था । ( २ ) अन्नसत्र : वह स्थान जहाँ भूखों को भोजन दिया जाता है । अन्नक्षेत्र तथा लंगर भी अर्थ होता है । पाद-टिप्पणी : १७. ( १ ) संगम : काश्मीर का शादीपुर समीपस्थ । प्रयाग = ( २ ) मछली : बड़ी मछलियों का इतना पेट भर गया था कि वे छोटी को नही खा सकती थी । इस प्रकार राजा के कारण छोटी मछलियों की जीवन रक्षा हो गयी । (३) लम्बोदर: गणेश का एक नाम लम्बोदर है । उनका उदर भोजन करने से उन्नत हो गया है । श्रीवर यहाँ यही उपमा देता है कि अन्नसत्र में याचक इतने तृप्त हो गये कि उनका पेट उन्नत हो गया । इससे यह प्रकट होता है कि सुलतान जैनुल आबदीन का पेट या तोन्द निकला था । शाब्दिक अर्थ भोजनभट्ट, स्थूलकाय भारी श्रीदत्त ने भावानुवाद किया है कि छोटी मछलियों को प्रतिदिन भात खिलाता था, जिससे उनकी रक्षा हो गयी थी । पाद-टिप्पणी : तोंदवाला होता है । भरकम, पाद-टिप्पणी : १८. (१) शंकरपुर : वर्तमान पाटन = पत्तन ( रा० : ०५ : १५६ ) । ( २ ) छाया : श्रीदत्त ने अनुवाद किया है कि १६. ( १ ) वाराहक्षेत्र : वाराहमूला समी- याचकों की प्रार्थना पर, जिन्हें वह खिलाता था,
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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