SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १:४:११] श्रीवरकृता भावानेकोनपञ्चाशत्संख्यास्तानांश्च तावतः । दर्शयन्त्यो बभुः पाठ्यस्ता मूर्ता इव मूर्च्छनाः ॥ ११ ॥ ११. उनचास' भावों तथा उतने ही तानों को प्रदर्शित करती वे पात्री स्त्रियाँ मूर्तिमती मूर्छना सदृश शोभित हो रही थीं। उसकी संज्ञा लास्य नृत्य से दी गयी है । साधा- पाद-टिप्पणी : रणतया पुरुष के नृत्य को ताण्डव एवं स्त्री के नृत्य ११. ( १ ) उनचास भाव : मन के विकार को लास्य कहते है। लास्य के दो भेद पेलवि तथा का नाम भाव है। भाव के बोध करानेवाले रोमांच वहुरूपक होते है। अभिनय-शून्य अंगविक्षेप को आदि को अनुभाव कहते है । काव्य रचना में स्थायी, पेलिव कहते है। जिसमे भेद आदि अनेक प्रकार के गौण या व्यभिचारी तथा सात्विक तीन भेद भाव के भावों के अभिनय हों उन्हे बहुरूप कहते है । लास्य किये गये है। स्थायीभाव आठ या नव है। व्यभिनृत्य दो प्रकार का होता है। छुरित तथा यौवन कहा चारीभाव तैतीस या चौतीस है। स्थायीभाव-- जाता है। नायक एवं नायिका परस्पर आलिंगन, (१) रति, (२) हास, (३) शोक, (४) क्रोध, (५) चुम्बन आदि करते जो नृत्य करते हैं उसे छुरित उत्साह, (६) भय, (७) जुगुप्सा और (८) विस्मय कहा जाता है । एकाकी नृत्य को यौवन कहते है। है। व्यभिचारीभाव--(१) निर्वेद (वैराग्य), (२) __ ग्लानि, (३) शंका, (४) असूया, (५) मद, (६) (२) ताण्डव : मदताण्डवोत्सवान्ते (उत्तर : श्रम, (७) आलस्य, (८) दैन्य, (९) चिन्ता, (१०) ३ . १८)। विशेषतया शिव के उन्माद नृत्य मोह, (११) स्मृति, (१२) धृति, (१३) व्रीडा, या प्रचण्ड नृत्य के लिये प्रयुक्त होता है। इस नृत्य (१४) चपलता, (१५) हर्ष, (१६) आवेग, (१७) का सम्बन्ध भैरव तथा वीरभद्र से है। शिव का जडता, (१८) गर्व, (१९) विषाद, (२०) औत्सुक्य, ताण्डव श्मशान में देवी तथा भूत-पिशाचों के साथ (२१) निद्रा, (२२) अपस्मार, (२३) स्वप्न, (२४) उद्धत रीति से होता है। अष्ट तथा षष्ठभुजी विबोध, (२५) अमर्प, (२६) अकार गोपन (अवताण्डव मुद्रा में शिव की मूर्तियाँ एलिफेण्टा, एलोरा, हित्था), (२७) उग्रता, (२८) मति, (२९) व्याधि, तथा भवनेश्वर की कलाओं में व्यंजित की गयी है। (३०) उन्माद, (३१) मरण, (३२) त्रास, (३३) ताण्डव की सबसे आकर्षक शिला पर खुदी नटराज वितर्क। सात्विकभाव के अन्तर्गत-(१) स्तम्भ, (२) की मति छठवीं शताब्दी की वादामी की है। मैं स्वेद, (३) रोमाच, (४) स्वरभंग, (५) कम्पन, (६) इसे देखकर कलाकार की कला पर मुग्ध हो गया। विवर्णता, (७) अश्रु और (८) प्रलाप ( मूर्छा ) है । इस मूर्ति में शिव के १२ हाथ दिखाये गये हैं। रसगंगाधर में पण्डितराज जगन्नाथ ने काव्य के ३४ भावों का उल्लेख किया है-(१) हर्ष, (२) स्मृति, (३) उत्सवा : यह एक प्रसिद्ध गायिका थी। (३) व्रीडा, (४) मोह, (५) धृति, (६) शंका, (७) श्रीवर के वर्णन से प्रकट होता है कि यह सुन्दर ग्लानि, (८) दैन्य, (९) चिन्ता, (१०) मद, (११) थी। जैनुल आबदीन के दरबार में भारत के प्रसिद्ध श्रम, (१२) गर्व, (१३) निद्रा, (१४) मति, (१५) संगीतज्ञों का प्रवेश उस काल में था । श्रीवर का केवल व्याधि, (१६) त्रास, (१७) सुप्त, (१८) विबोध, उत्सवा के उल्लेख करने का अर्थ है कि वह अपने (१९) अमर्ष, (२०) अवहित्थ, (२१) उग्रता, (२२) समय की अपने कला की महान निपुण महिला थी। उन्माद, (२३) मरण, (२४) वितर्क, (२५) विषाद, नाम से हिन्दू प्रतीत होती है। (२६) औत्सुक्य, (२७) आवेग, (२८) जड़ता, (२९)
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy