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________________ १:३ : १२१] श्रीवरकृता ११३ यो नित्यं परितो वृतो गणशतैरत्यर्थभक्त्युज्ज्वलैः पुत्राभ्यां सहितो हितस्त्रिजगतां नानाविलासान् भजन् । कालो गच्छति यस्य लास्यललितं गीतं च यच्छण्वतः शस्यः कस्य न तन्नमस्यविभवः कैलासवासो भवः ।। १२१ ॥ इति जैनराजतरङ्गिण्याम् आदामखाननिर्बासनं हाज्यखानसंयोगवर्णनं नाम तृतीयः सर्गः॥ ३ ॥ १२१. अति भक्तिपूर्ण सैकड़ों गणों द्वारा चारों ओर से, जो नित्य आवृत होकर, दोनों पुत्रों सहित तीनों लोक के हितैषी नाना विलासों को प्राप्त करते हैं, ललित लास्य एवं गीत श्रवण करते, जिसका काल व्यतीत होता है, वह प्रणम्य, ऐश्वर्यशाली, कैलास वासी शिव, किसके लिये प्रशंसनीय नहीं हैं ? जैन राजतरंगिणी में आदम खाँ निर्वासन तथा हाजी खाँ संयोग वर्णन नामक तृतीय सर्ग समाप्त हुआ। गया, हरिद्वार आदि है । काश्मीर में अनेक स्थानीय ४०; सभा० : ३ . २-९, १० : ३१-३२; ४६ : तीर्थ थे। उनको मैंने राजतरंगिणी : जोनराज: ; उद्योग० : १११ : ११; अनु० : १९ : ३१; परिशिष्ट 'थ' में दिया है। ८३ : २८-३०) मे अत्यधिक तथा मनोरम वर्णन दाहिने हाथ के अंगठे का ऊपरी भाग ब्रह्मतीर्थ, मिलता है। पुराणों ( ब्रह्मा० : ४ : ४४ : ९५: अँगूठे और तर्जनी के मध्य का पितृतीर्थ, कनिष्ठा मत्स्य० . १२१ : २-३ ) में भी कैलास का वर्णन उँगली के नीचे का भाग प्रजापत्यतीर्थ एवं-उँगलियो शिव के आवास रूप में मिलता है । हिन्दुओ का एक का अग्रभाग देवतीर्थ माना जाता है । तीर्थ है। प्रत्येक हिन्दू का यह सकल्प रहता है कि वह कैलास का दर्शन करे । कैलास का नाम लेते ही पाद-टिप्पणी : हिन्दुओं का हृदय भक्ति एवं तत्सम्बन्धी गाथाओं से बम्बई का १२०वा श्लोक तथा कलकत्ता की भर उठता है। ३३४वी पंक्ति है। कैलास समुद्र की सतह से २२०२८ फुट ऊँचा १२१. (१) लास्य : नृत्य इसमें स्त्रियाँ है। मानसरोवर से ४५ मील उत्तर है। यह हिन्दू भाग लेती है। इस नृत्य मे प्रेम की भावनाएँ मन्दिर शैली सा प्रकट होता है। उसका मस्तक विभिन्न हाव-भाव तथा अंग विन्यासों द्वारा प्रकट हिमाच्छादित रहता है। वहाँ से हिमानी शिव जटा के की जाती है। द्रष्टव्य : जैन० : १ : ४ : १० । समान बलुआ पत्थर वाले पर्वत पर बिखरी ऊपर से (२) कैलास : रामायण (बाल० : २४: नीचे आती है। गंगावतरण की कल्पना प्रतीत होती ८; ३७ : ७०; अरण्य० : ३२ : १४; किष्किन्धा० : है कि कैलास की सुन्दरता, उसकी सुन्दर रचना ३७ : २, २२; ४३ : २०, उत्तर० : २५ : ५२) एवं शिखर से नीचे की ओर आती हिमधारा को तथा महाभारत ( वन० : १०९ : १६-१७; १०८: देखकर की गयी है । जटा मस्तक पर होती है । २६; १३९ : ४१, १०६ : १०; १४१ : ११-१२; जटा का रंग काला होता है। शिखर काला है। १५३ : १-२; १५५ : २३; आदि० : २२२ : ३६- गंगा का रूप उज्ज्वल है। कैलास मूर्धा पर जमा जै, रा. १५
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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