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________________ जैनराजतरंगिणी कश्मीर आज भारत के साथ है । उसमें एक बड़ा योगदान श्री महावीर त्यागी को है । स्वर्गीय श्री पं० जवाहर लाल से बच्चों के समान उनकी बराबर कहासुनी होती थी। लोग खड़े, उनका तमाशा देखते थे। रफी अहमद किदवाई के वे दाहिने हाथ थे । अप्रासंगिक होने के कारण वहाँ उसका लिखना उचित नहीं है। सन् १९७२-१९७६ ई० दिल्ली में वर्ष में दो-एक बार के प्रवास काल में उनके यहाँ मैं ठहरता था। राज तरंगिणी के कुछ सन्दर्भ ग्रन्थों को उनके यहाँ रख दिया था। दिल्ली के संसदीय तथा पुरातत्व विभाग के पुस्तकालयों में जो नोट बनाता था, उन्हें त्यागी जी के यहाँ बैठकर लिखता था। उनकी कन्या श्रीमती उमादेवी का आतिथ्य भूलना कठिन है। इस परिश्रम काल में उनके दोनों बाल नाती सर्वश्री नान तथा गिरीश के कारण स्वाभाविक वार्तालाप में दिमाग हलका हो जाता था। मैं गौरवान्वित हूँ, ऐसे महापुरुष का आतिथ्य प्राप्त कर । समर्पण : अर्धनारीश्वर के उपासक, राजतरंगिणी कारो पर किये गये, इस अन्तिम भाष्य को मैंने अपनी अर्धाङ्गिनी श्रीमती लीलावती देवी को समर्पण किया है। उसे मैंने आदर्श भारतीय नारी रूप में देखा है। मेरी अनेक पराधीन तथा स्वाधीनता कालीन जेल यात्राओं तथा जेल में लम्बे जीवन व्यतीत करने पर भी उसने कभी स्वप्न में भी विरोध भाव नहीं प्रकट किया। न उसे प्रसन्नता हुई और न दुःख । निरपेक्ष घर गृहस्थी का कार्य देखती रही। एक पुत्र की माता कुछ घण्टों के लिए बनी। तत्पचात् सन्तान रहित होने पर, भी उसे कभी निःसन्तान होने का दुःख नहीं हुआ। उसे तीन-चार खद्दर की धोतियाँ पर्याप्त थीं। आभूषण, वस्त्रादि लेने या पहनने की उसकी कभी रुचि नहीं हई। असंग्रही थी। लोभ से बहुत दूर थी। दान-पुण्य, लोगों को खिलाने-पिलाने, आतिथ्य सत्कार में उसे रस मिलता था। मैं कहाँ जाता हूँ, क्या करता हूँ, उसने कभी जिज्ञासा नहीं की। दिल्ली के लम्बे प्रवास में, कठिनता से दो तीन बार वहाँ गयी थी। उसे दिल्ली पसन्द नहीं आयी। उदयपुर में तीन वर्ष रहा। एक बार भी वहाँ नहीं गयी। गंगा स्नान तथा देवताओं के दर्शन में रुचि थी। मैं जो कुछ लिख सका, उसमें उसका सबसे बड़ा योगदान इसलिये है कि उसने मुझे घर गृहस्थी की चिन्ता से मुक्त कर दिया था। जेलों में कभी मुझसे भेंट करने नहीं गयी। उसे बाहर, निकलने में संकोच होता था। परदे की यह हालत थी कि विवाह के सोलह वर्ष पश्चात् तक मुझे उसे पहचानना कठिन था। पुरानी प्रथा के अनुसार पुरुषों का अलग मकान या आवास होता था। घर में बड़ों के सामने, पति से बात करना, उसके सामने निकलना, अनुचित समझा जाता था। एक बार दिल्ली में स्वर्गीय श्री पुरुषोत्तम दास टण्डन मेरे बंगले पर आये। उनसे घरेलू व्यवहार था। मैं अपनी स्त्री के साथ बैठा था। उससे बातें कर रहा था। टण्डन जी कमरे में आ गये । वह तुरन्त पलङ्ग के नीचे चली गयी। पलङ्ग पर बैठे हम और टण्डन जी घण्टों बात करते रहे। वह चुपचाप दम साधे पड़ी रही । टण्डन जी एक बार दो संसद सदस्यों स्वर्गीय सर्वश्री हरिहर नाथ शास्त्री एवं लाला अचिन्त्यराम की पत्नी को उसे देखने के लिए भेजा । उनके सामने न हुयी । दूसरे दिन टण्डन जी संसद में चर्चा करते रहेमैंने कभी न देखा और सुना कि स्त्री भी स्त्री से परदा करती हैं। वह स्पस्पशं का कड़ाई से पालन करती हैं। बिना हाथ पैर धोए कोई घर में खाना नहीं खा सकता। वह स्वयं भोजन बनाती है। बरतन नौकरानी के साफ कर जाने पर, स्वयं उन्हें जल से धोती है। घर का बर्तन सर्वदा चमकता रहता है। उन्हें देखकर मन प्रसन्न होता है, जैसे उसकी उज्वल पवित्रता बरतने में उतर आती है। यद्यपि मैं अकेला हूँ परन्तु घर पर तीस चालीस व्यक्तियों का भोजन बनता पाहा
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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