SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १.३:५२-५३ ] श्रीवरकृता सत्कन्या किन्नरामुद्रादण्डाद्य र्द्वादशीदिने 1 भारिकान् योगिनः कृत्वा प्रत्यमुञ्चत् ततो वहिः ।। ५२ ।। ५२. द्वादशी के दिन सुंदर कन्या, तम्बूरा, मुद्रा, दण्डादि देकर योगियों को भारवाहक बना कर छोड़ा। वितस्ताजन्मपूजार्थं त्रयोदश्यां ततो नृपः । दीपमाला दिदृक्षः सनौकारूढोऽभ्यगात् पुरम् ।। ५३ ।। ५३. तदनन्तर राजा त्रयोदशी के दिन वितस्ता जन्मोत्सव' (पूजा) के लिए, दीपमालाओं को देखने की इच्छा से नौका पर आरूढ़ होकर नगर में गया। पाद-टिप्पणी सन्यास लेना है । पिता, माता, स्त्री, पुत्र आदि बम्बई का ५१ वा श्लोक तथा कलकत्ता की के रहते, दण्ड धारण निषेध है । दण्ड धारण करने २६५वी पंक्ति है। पर यज्ञोपवीत उतार कर भस्म कर दिया जाता है। शिखा का मुण्डन कर देते है । पूर्व नाम बदल दिया जाता है । अनन्तर गुरु दशाक्षर मन्त्र देकर, गेरुवा वस्त्र, दण्ड एवं कमण्डलु देते हैं। धातु एवं अग्नि का स्वर्ण तथा स्वयं भोजन दण्डी नहीं बनाते । केवल एक बार दण्डी सन्यासी मध्याह्न के भोजन करते है। पूर्व ५२. (१) द्वादशी भाद्रपद शुक्ल द्वादशी का पर्व काश्मीर में महत्वपूर्ण माना गया है। यह जब श्रावण के साथ होती है, तो उसे महाद्वादशी कहते हैं । द्रष्टव्य नीलमत पुराण : ७६७७७७ । (२) कन्या गुदड़ी, कयरी, जोगियों का पहनावा या परिधान । थेगली लगा वस्त्र | ८९ कारि पटोर सो पहिरो कन्या । जो मोहि कोउ दिखावे पंया | जायसी ॥ ( ३ ) दण्ड : वर्णानुसार दण्ड धारण करने की व्यवस्था शास्त्रकारों ने की है । उपनयन संस्कार के समय मेखलादि के साथ ब्रह्मचारी को दण्ड धारण कराया जाता है । ब्राह्मण - वेल या पलाश केशांत तक ऊँचा; क्षत्रिय - बरगद या खैर का ललाट तक ऊँचा और वैश्य - गूलर या पलाश नाक तक ऊँचा दण्डधारण करते है । केवल ब्राह्मण सन्यासी दण्ड धारण कर सकते हैं । उन्हें दण्डी सन्यासी कहते है । सन्यासियों में कुटीचक तथा बहूदक को त्रिदण्ड, हंस को एक वेणु दण्ड एवं परमहंस को भी एक दण्ड धारण करना चाहिए। यह भी मत है कि परमहंस को दण्ड धारण करना आवश्यक नही है । दण्ड ग्रहण करने का अर्थ जे. रा. १२ बारह वर्ष दण्डी सन्यासी का व्रत धारण करने पर, दण्ड को जल में प्रवाह कर दिया जाता है । दण्डी उस समय परमहंस आश्रम प्राप्त करता है । मृत्योपरान्त दण्डी का दाह संस्कार नही होता । श्राद्ध आदि नही किया जाता । उनके पार्थिव शरीर को जलप्रवाह अथवा समाधि दी जाती है। दण्डी निर्गुण ब्रह्म की उपासना करते है । : (४) भारवाहक सुल्तान ने इतना सामान दिया कि वह स्वतः एक भार हो गया था। वे बोझा लेकर चले । पाद-टिप्पणी बम्बई का ५२व लोक तथा कलकत्ता की २६६वी पंक्ति है। ५३. ( १ ) जन्मोत्सव : व्यथत्रुवह कहते है । भाद्रशुल त्रयोदशी को मनायी जाती है। इसे काश्मीरी मे व्यथत्रुवही कहते है । इस समय यह
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy