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________________ १ : ३ : ११-१३] श्रीवरकृता मृदोर्जलस्य तत्कालेऽद्रिवृक्षविटपालिषु । केनोपदिष्टं तत्काले मूलोत्पाटनपाटवम् ॥ ११ ॥ ११. उस समय मृदु जल को पर्वत, वृक्ष एवं विटपों को मूल से उखाड़ने की चातुरी किसने सिखायो? अग्राग्रपशुगोप्राणिगृहधान्यादिहारकः ___ भयदोऽभूज्जलापूरः स म्लेच्छोत्पिञ्जसंनिभः ॥ १२ ॥ १२. समक्ष के पशु, गऊ, प्राणी, गृह, धान्यादि का हरणकर्ता, वह जलापुर (बाढ़) म्लेच्छो' के हिंसा (क्षति) सदृश, भयप्रद हो गया था। तदा मडवराज्यस्था विशोका शोकदा नदी । प्रदक्षिणेच्छयेवान्तर्विवेश विजयेश्वरम् ।। १३ ॥ १३. उस समय मडव राज्य की शोकप्रद विशोका' नदी प्रदक्षिणा की इच्छा से ही, मानो विजयेश्वर मे प्रवेश की। पाद-टिप्पणी: १३. (१) विशोका : वर्तमान बिसाऊ नदी है। ११. कलकत्ता तथा बम्बई दोनों में 'मृदोह' पीरपंजाल के उत्तरी ढाल की सब श्रोतस्विनियों का छपा है परन्तु व्याकरण की दृष्टि से 'मृदोर' होना जो सिदन तथा बनिहाल के मध्य पड़ती है, जल चाहिए अतएव 'मृदोर' रखा गया है । ग्रहण करती है। नौबन्धन के नीचे क्रमसरस अथवा पाद-टिप्पणी: कौसरनाग सर इसका उद्गम माना गया है। पर्वत १२. (१) म्लेच्छ हिंसा : श्रीवर म्लेच्छराज से इस नदी के नीचे उतरते ही इसमें से बहुत-सी दुलचा (जोन० १४२-१४३) तथा सूहभट्ट के भट के नहर नहरें निकाली गयी है। पुराने कराल (अदविन) ब्राह्मणों पर अत्याचार, पीड़न, दमन, प्रतिमाभंग तथा देवसरस (दिवसर) परगना के भूभाग को सीचती आदि की ओर संकेत करता जो सिकन्दर नमित है। कैमुह तक विशोका मे नाव चल सकती है। तथा अलीशाह के समय सूहभट्ट द्वारा किया गया रामव्यार नदी विशोका में गम्भीर संगम से कुछ था ( जोन० ५९९-६१३ तथा ६५३-६६९, ७२२ ऊपर मिलती है। गम्भीर सगम पर विशोका वितस्ता में मिल जाती है। नीलमत पुराण ने ७२७)। म्लेच्छबाधा का उल्लेख श्लोक ८११ से ८२० में श्री जोनराज ने किया है। म्लेच्छ का विशोका को लक्ष्मी का अवतार माना है। विशोका नदी करमसर वन्धा के पश्चिमी सीमा के निकट उल्लेख १: ५ : ५९ तथा १:४ : ३३ में भी किया एक गर्त से निकलती है। उसे चूहे की बिल 'अहोर गया है। बिल' कहते हैं। विशोका का स्रोत जहाँ गिरता है, पाद-टिप्पणी : उस प्रपात को भी 'अखोर' बिल कहते है। वह पहले उक्त श्लोक में बम्बई श्लोक के १३वें श्लोक का , उत्तर बहती चिन्त नदी नाम धारण करती है। द्वितीय पद यथावत् है। प्रथम पद नही है । किन्तु यह कंग से एक मील उत्तर है। तत्पश्चात् कलकत्ता संस्करण में पूरा श्लोक २२६वी बुडिल पास पहुँचकर अरवल पहुंचती है। वहाँ से पंक्ति है। उत्तर-पूर्व दिशा बहती उत्तर की ओर मुड़ती राम
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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