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________________ जैन राजतरगिणी क्षीणा ग्रामेषु वास्तव्याः केचिदन्नामृताप्तये । शाकमूलफलहारा व्रतनिष्ठा इवाभवन् ।। २० । २०. ग्रामों में कुछ क्षीण निवासी अन्न अमृत प्राप्ति हेतु, शाक, मूल, फल का आहार करके, मानो व्रत का पालन कर रहे थे । चिराटङ्कान्तरे क्षिप्त्वा शाकं किमपि तण्डुलम् | पक्त्वाऽन्ये केsपि तद्भोगादकुर्वन् प्राणधारणम् ॥ २१ ॥ २१. अन्य कुछ लोग, कुछ दिनों के पश्चात शाक एवं चावल पकाकर उसे खाकर, प्राण धारण किये । सर्पिवतैलान तण्डुलेन Har | हृता नीचेन साधूनामिव सर्वोपयोगिनाम् ॥ २२ ॥ २२. चावल ने सर्वोपयोगी घी, नमक, तैल की महार्घता ' ( अतिमूल्यवान ) का मूल्य उसी प्रकार कम कर दिया, जिस प्रकार नीच सर्वहितकारी साधुओं का । योऽभूत् पूर्वं पुरान्तरे । बहुधान्यकथा निष्ठ बहुधान्यकथानिष्ठस्तत्कालं स व्यलोक्यत ।। २३ ॥ २३. पुर में पहले बहुत धन-धान्य की जो कहानी थी, वह उस समय प्रायः कहानी में ही देखी गयी थी । बन्धुजीवस्तथा कन्दो बन्धुजीव इवाभवत् । मन्दान् संघारयामास क्षुधान्धान् योऽन्धसा विना ॥ २४. उस समय वन्धुजीव कन्द वन्धुजीव' क्षुधा से अन्धे मन्द लोगों को धारण किये रहा । उसकी गणना होती है। पाद-टिप्पणी : [ १ : २ : २०-२४ सरस स्वादिष्ट भोज्य पदार्थों में २०. कलकत्ता संस्करण का १९७ तथा बम्बई संस्करण का २० व श्लोक है । पाद-टिप्पणी : २१. पाठ-बम्बई पाद-टिप्पणी : २२. ( १ ) महार्घता : मंहगायी का वर्णन श्रीवर ने किया है। घी, नमक तथा तेल, मँहगे बिकते थे । परन्तु घी, तेल, नमक अन्न से खाकर २४ ॥ सदृश हो गया था, जो कि अन्न के बिना भी, कोई जीवित नहीं रह सकता । जीवन निर्वाह के लिए अन्न आवश्यक है । यदि मनुष्य रत्नों की राशि - पूर्ण कोठरी में रख दिया जाय, तो रत्न उसे सुख तथा उसकी तृष्ण एवं क्षुधा शान्त नही करेगा । उस समय एक पाव जल की कीमत एक पाव रत्न से अधिक होगी। क्योंकि जब जीवन ही नहीं रहेगा, तो रत्न की क्या उपयोगिता ? पाद-टिप्पणी : बम्बई का 'सन्धार' पाठ ठीक है । 10 २४. ( १ ) बन्धुजीव जीवक वृक्ष = बन्धु का जीवनप्रद, गुलदुपहरिया का पौधा ।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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