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________________ जैनराजतरंगिणी [१:१:१७६ राज्यस्थितिप्रविकसन्नलिनीहिमौघो लोकक्षयोचितमहाभयधूमकेतुः विघ्नप्रसक्तखलघूकनिशान्धकारः । शापः सुखस्य नृपतेः स्वजनैर्विरोधः ॥ १७६ ।। इति पण्डितश्रीवरविरचितजैनराजतरंगिण्यां मल्लशिलायुद्धवर्णनं नाम प्रथमः सर्गः ॥ १ ॥ १७६. सुखी राजा के लिये अपने जनों से विरोध होना शाप है, जो विकसित होते, रूपनलिनी के लिये हिमपुंज, लोक के विनाश समर्थ महाभयकर धूमकेतु' एवं विघ्न में लगे दुष्ट उलकों के लिये निशान्धकार है। पण्डित श्रीवर विरचित जैन राजतरंगिणी में मल्ल शिला युद्ध वर्णन प्रथम सर्ग समाप्त हुआ। पाद-टिप्पणी : सूचक धूमकेतु के उदय का वर्णन प्रायः सभी १७६. उक्त श्लोक कलकत्ता तथा बम्बई काश्मीरी लेखकों ने किया है। धूमकेतु के उदय होते संस्करण का १७६ वां श्लोक है। ही काश्मीरी धारणा है कि देश पर भयंकर विपत्ति उक्त श्लोक के पश्चात् निम्नलिखित श्लोक आ जाती है। शुक ने धूमकेतू के परिणामों का कलकत्ता संस्करण मे और मुद्रित है। उल्लेख विस्तार से किया है (२: ८९ )। केतु श्री मान सिहनृपते तव नाम वर्णाः एक प्रकार का तारा है । उसमे चमकती पूँछ दिखायी पञ्चेषु पञ्च विशि खन्ति नितम्बिनीषु । देती है । इसे पुच्छल तारा भी कहते है। इस प्रकार प्राणन्ति वन्धुषु विरोधिषु पाण्डवन्ति के अनेक तारा है, जो रात्रि मे झाड़ के समान दिखायी देवद्रुमन्ति कवि पण्डित मण्डलेषु ॥ देते है। ज्योतिषियों में इनकी संख्या के विषय में 'हे ! श्रीमान सिंह नृपति ! तुम्हारे नामाक्षर। मतैक्य नहीं है। फलित ज्योतिष के अनुसार भिन्न भिन्न केतुओं का भिन्न-भिन्न परिणाम होता है। पंचवाण (कामदेव ) के पंचवाण तथा भाइयों केतु उदयकाल के पन्द्रह दिन के भीतर अपना फल में प्राण एवं विरोधियों में पाण्डव तथा कवि पण्डित प्रकट करता है। मण्डलियों में देवद्रुम का आचरण करते हैं।' विष्णुधर्मोत्तरपुराण मे धूमकेतु के विषय में कलकत्ता में १७७ तथा बम्बई में १७६ श्लोक एक कथा दी गयी है । प्रजा की अत्यन्त वृद्धि देखकर हैं। कलकत्ता में उक्त श्लोक और अधिक छपा ब्रह्मा ने मृत्यु नामक एक कन्या उत्पन्न किया। उसे है, जो श्रीवर कृत नही परन्तु लिपिक द्वारा प्रजा संहार करने के लिये आदेश दिया। कन्या संहार श्लोक 'श्रीमानसिंह नृपति' बढ़ाया गया है। का आदेश सुनकर रुदन करने लगी। उसके अश्रुओं श्री मानसिंह नृपति के समय पाण्डुलिपि की प्रतिलिपि ने अनेक व्याधियों को उत्पन्न किया। उसने तप कराई गयी होगी अतएव श्रीवर कृत पर नहीं है। यह किया । तप क का किया। तप के कारण उसे वर मिला। उसके बम्बई प्रति में भी नहीं है। अतएव उसे निकाल देने कारण किसी की मृत्यु नहीं होगी। कन्या ने एक पर श्लोक संख्या १७६ हो जाती है। इस प्रकार दीर्घ निश्वास त्याग किया। उससे केतु उत्पन्न हुआ। बम्बई तथा कलकत्ता दोनों की श्लोक संख्या समान केतु को एक शिखा भी थी। इसे ही केतु या धूमकेतु होती है। कहते है ( १ : १०६) । आधुनिक वैज्ञानिक मान्यता (१) धूमकेतु : धूमकेतु का परिणाम क्षत्रभंग, के अनुसार धूमकेतु के अयाम, नामकरण, कक्षा, मूलतत्व, घनत्व, प्रकाश आदि पर विशद ग्रन्थ अकाल, युद्ध इत्यादि अमंगल कार्य होता है । अनिष्ट- उपलब्ध है।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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