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________________ १ : १ : १३४ - १३९] श्रीवरकृता अग्रजोऽग्रे समायाति रणायायाति नो नृपः । इत्युक्तं तेन सम्प्राप्तो नाहं पितृवधोद्यतः ॥ १३४ ॥ १३४. 'युद्ध के लिए ज्येष्ठ भ्राता आगे आ रहा है, न कि राजा, मै पितृ वध के लिए उद्यत होकर, नहीं आया हूं' - इस प्रकार उस (हाजी खाँन) ने कहा । मन्त्रिणस्ताजतन्त्रिपत्यादयस्ततः । श्रुत्वेति तत्तुरङ्गात्तवल्गाग्रा निष्ठुरं ब्रुन ॥ १३५ ॥ १३५. यह सुनकर ताज तन्त्रपति' आदि उन मन्त्रियों ने उसके अश्व की लगाम पकड़कर, निष्ठुरतापूर्वक इस प्रकार कहा यदोक्तं समयो नायं याम इत्यवधीरितम् । आरब्धस्यान्तगमनं तद्य क्तमधुना तव ॥ १३६ ॥ १३६. 'जब हम लोगों ने कहा - तब 'यह उचित समय नहीं है', आपने अवहेलना की अतएव अब तुम्हारे लिए आरम्भ किये का अन्त करना उचित है । यूयं चेज्जातसौहार्दा मार्दवानन्दिताराः । वयमेव हताः कष्टं क्लिष्टास्त्वत्सेवनाशया ॥ १३७ ॥ ४७ १३७. 'यदि तुमलोग सौहार्द युक्त होकर, मृदुता से आनन्दित हो, तो तुम्हारी सेवा की आशा वाले, दुःख है, हमी लोग मारे गये । भवेत् सन्तप्तयोः सन्धिर्नित्यं तैलकटाहयोः । तदन्तः पूरणी क्षिप्ता सैव दन्दह्यते क्षणात् ॥ १३८ ॥ १३८. 'सन्तप्त तेल और कटाह' की नित्य सन्धि सम्भव है और उसके अन्दर डाली गयी पूरणी (पूरी) क्षण में जल जाती है । भवान् स्वामी वयं दासाः पौरुषं पश्य साम्प्रतम् । जयश्चेत्तव राज्याप्तिर्नष्टो याहि यथागतम् ॥ १३९ ॥ १३९. 'आप स्वामी हैं, हमलोग दास, अब पौरुष देखिये । यदि तुम्हारी जय हो, तो राज्य प्राप्ति होगी और नष्ट होने पर, जैसे आये वैसे चले जाना । पाद-टिप्पणी : १३५. (१) तन्त्रपति : द्रष्टव्य टिप्पणी श्लोक : १ : १ : ९५ । तन्त्रियों को वर्तमान काल में तन्त्री कहते हैं । मुसलमानों में उनकी अपनी एक उपजाति है । कृषक वर्ग है। यह 'क्रम' काश्मीर में सर्वत्र नगर तथा ग्रामों में फैला है। एक मैत है कि वे मूलतः तातारी थे । काश्मीर में उत्तरीय पर्वतीय क्षेत्र के निवासी थे । पाद-टिप्पणी : १३८ १ ) कटाह : कड़ाही । कड़ाही तेल को जलाती है । बिना कड़ाही के तेल जल नही सकता। उसके खौलते तेल में जो भी वस्तु डाली जाती है, क्षणमात्र में जल जाती है । पाद-टिप्पणी : १३९. (१) राज्य प्राप्ति : श्रीवर ने गीता के निम्नलिखित भाव को अपने शब्दों में रखा है ।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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