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________________ जैनराजतरंगिणी [१:१:१२४-१२७ जीवनाशोधता येमे लसन्त्युच्छङ्खलाः खलाः ।। सुचिरं नैव तिष्ठन्ति सरसः सारसाः इव ॥ १२४ ॥ १२४. 'जीवनाशा से उद्यत उच्छृखल जो खल शोभित हो रहे है, वे सरोवर के सारसों के समान बहुत दिन नही रहेंगे। मदादेशं विना देशं किमर्थं स्वयमागतः । केन राज्यं बलात् प्राप्तं निजभाग्योदयं विना ॥ १२५ ॥ १२५. 'मेरे आदेश के बिना किस लिये देश में आये हो ? अपने भाग्योदय' के बिना बल से किसने राज्य प्राप्त किया है ? बाह्यदेशावनिः सर्वा भुज्यते तृप्यसे न किम् । येन मण्डलमात्रं मेऽवशिष्टं हर्तुमागतः ॥ १२६ ॥ १२६. 'बाह्यदेशों की सब भूमि भोग रहे हो (उससे) क्या तृप्त नही होते, जिससे मेरे अवशिष्ट मण्डल मात्र को हरण हेतु आये हो ? तन्निवर्तस्व मा पुत्र पापबुद्धिं वृथा कृथाः । बलद्वयवधात् पापं तवैतत् परिणेष्यति ॥ १२७ ॥ १२७. 'अतएव हे ! पुत्र !! लौट जाओ । और वृथा पाप बुद्धि मत करो । दोनो सेनाओं का यह पाप तुम पर फलेगा। पाद-टिप्पणी: पश्चिम दक्षिण भूखण्ड, जो काश्मीर मण्डल के बाहर १२४. 'मे' पाठ-बम्बई था, उससे यहाँ तात्पर्य है। कभी-कभी राजतरंगिणी में दिगन्तर शब्द का भी प्रयोग किया गया है। पादटिप्पणी: काश्मीर की सीमा के बाहर के स्थानों की संज्ञा १२५. (१) भाग्य : कल्हण, जोनराज, श्रीवर बाह्य देश से दी गयी है। बाह्य देश काश्मीर तथा शुक चारों राजतरंगिणीकार भाग्यवादी थे। में प्रवेश करने वालों पासों अर्थात् दरों के बाहर का कर्म को प्राथमिकता देते हुए, भी कल्हण भाग्य को स्थान कहा जाता है, क्योंकि काश्मीर मण्डल चारों मानता था। जोनराज, श्रीवर तथा शुक मुसलिम ओर पर्वतमालाओं से आवृत है, वही सुरक्षा पंक्ति सुलतानों के राजकवि थे। मुसलमान किस्मत पर काश्मीर की है। उससे बाहर जो स्थान पड़ता है, वह विश्वास करते है। अतएव उन्होंने कर्म पर जोर न वाह्य देश था। दिगन्तर एवं बाह्य देश के प्रयोग देकर भाग्य पर ही सर्वत्र जोर दिया है। में अन्तर मालूम पड़ता है। दो दिशाओं के मध्य पादटिप्पणी: का अर्थ दिगन्तर होता है। आँखों से ओझल हो जाना या निश्चित स्थान से लुप्त हो जाने का अर्थ १२६. ( १ ) बाह्य देश : पूंछ से राजौरी दिगन्तर होता है।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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