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________________ ८ जैनराजतरंगिणी [ १ : १ : २३ परन्तु उनमें मनुष्पत्व सामान्य है । सामान्य के भेद पर सामान्य तथा अपर सामान्य है । वृक्ष अनेक है । किन्तु उनमें वृक्षत्व एक है । सामान्यरूप से सभी वृक्षों में अवस्थित है । कणाद ने कहा है'भावोऽनुवृत्तेरेव हेतुत्वात् सामान्यमेव ' - वै० सू० १२२|४|| के भेद द्रव्य, गुण तथा कर्म एवं स्वात्मसत् के भेद सामान्य, विशेष एवं समवाय है । द्रव्य की परिभाषा वैशेषिक सूत्र (१ : १ : ५ ) में की गयी है -- ' क्रिया गुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्य लक्षणम् ।' गुण तथा क्रिया जिसमें समवायसम्बन्ध से रहते हैं तथा समवायिकारण भी हो वही द्रव्य कहा जाता है । द्रव्य के नव भेद -- पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा एवं मन है । ('पृथिव्यापस्तेजो- वायुराकांश कालो- दिगात्मामन इति द्रव्याणि' - - वै० १ : १ : ५ ) । (२) गुण : वैशेषिकदर्शन मे २४ प्रकार के गुणों का परिगणन किया गया है-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, शब्द, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, अदृष्ट, एवं संस्कार । गीता ने --- 'सत्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृति संभवा'-- अर्थता सत्व, रज एवं तम तीन गुणों को माना है । रूपरसगन्धस्पर्शाः सङ्ख्याः परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागौ परत्वापरत्वे बुद्धयः सुखदुःखे इच्छाद्वेषौ प्रयत्नाश्च गुणा - वै० सू० १|१|६॥' किन्तु महर्षि कणाद ने केवल १७ गुणों को वैशेषिकदर्शन मे माना है । वैशेषिकदर्शन ने गुण परिभाषा की है— द्रव्याश्रय्य गुणवान् संयोगविमागष्व कारण मनपेक्ष इति गुण लक्षणम्' वैशेषिक सूत्र ( १ : १ : १६ ) । द्रव्याश्रितत्व, निगुर्णत्व एवं निष्क्रियत्व ही गुण के लक्षण है । (३) कर्म : वैशेषिक के अनुसार उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण एवं गमन पाँच वर्गों में कर्म का विभाजन किया गया है। वैशेषिक ने कर्म का पाँच भेद माना है - 'उत्क्षेपणमवक्षेपण - माकुञ्चनं प्रसारणं गमनमिति कर्माणि (वै० : ११ : ७) ।' ( ४ ) सामान्य : तर्कसंग्रह ने सामान्य की परिभाषा की है - ' नित्यमेकम नेकानुगतं सामान्यम्' अर्थात् सामान्य एक है । नित्य है । अनेकानुगत है । मनुष्य अनेक है, परस्पर भिन्न रूप गुण के है । कणाद ने पुनः लिखा है 'सदिति यतो द्रव्यगुणकर्मसु सा सत्ता' - वै० सू० १२|७|| (५) विशेष कणाद ने विशेष के सन्दर्भ में लिखा है 'अन्यत्र अन्त्येभ्यो विशेषेभ्यः 'वै० सू० १२६ ॥ एक परमाणु (अथवा नित्य द्रव्य) से दूसरे पर - माणु (अथवा नित्य द्रव्य) को भिन्न सिद्ध करनेवाला पदार्थ विशेष है। परमाणुओं के अनन्त होने के कारण विशेष भी अनन्त है । किन्तु एक विशेष से दूसरे विशेष को भिन्न सिद्ध करनेवाले किसी तत्त्व की आवश्यकता नही है । जैसे सूर्य इस जगत को भी प्रकाशित करता है और अपने आपको भी । उसी तरह विशेष परमाणुओं को भी परस्पर भिन्न सिद्ध करना है और अपने आपको भी । इसीलिए इसे अनेक विशेष कहा है । (६) समवाय: कणाद ने समवाय की परिभाषा करते हुए लिखा है इदमिति यत कार्यकारणयोः स समवायः - वै० सू० ७।२।२६ ॥ समवाय दो पदार्थों - द्रव्य - गुण, द्रव्य-कर्म, द्रव्यसामान्य, द्रव्य-विशेष, अवयवद्रव्य - अवयविद्रव्य, गुणसामान्य और कर्म - सामान्य के बीच का पारस्परिक सम्बन्ध है | यह सम्बन्ध उन दो तत्त्वों के बीच माना जाता है, जिनमे से किसी एक को हम दूसरे से तब तक अलग नही कर सकते, जब तक वह वर्तमान है । इस प्रकार के दो पदार्थों को 'अयुतसिद्ध' कहा जाता । यह संयोग सम्बन्ध, जो 'युतसिद्ध ' पदार्थों तथा द्रव्य-द्रव्य के बीच ही रहता है, से सर्वथा भिन्न है । कणाद ने केवल उदाहरण के रूप में कार्य-कारण के
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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