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________________ ४ जैन राजतरंगिणी अथवा नृपवृत्तान्तस्मृतिहेतुरयं श्रमः । क्रियते ललितं काव्यं कुर्वन्त्वन्येऽपि पण्डिताः ॥ १० ॥ १०. अथवा नृप - वृतान्त के स्मरण' हेतु यह श्रम किया जा रहा है । ललित काव्य की रचना अन्य पण्डित करें । तत्तद्गुणगणादानात् पुत्रवद्वर्धितो स्वसम्पत्तिसमर्पणात् । ग्राममानुग्रहैः ॥ ११ ॥ राज्ञा ११. तत् तत् गुणों के आदान तथा स्व-सम्पत्ति के प्रदानपूर्वक, ग्राम, हेम' आदि अनुगृहों से राजा द्वारा पुत्रवत् (मै) संवर्धित किया गया । अतो वाञ्छन्नमेयस्य तत्प्रसादस्य निष्कृतिम् । सोऽहं ब्रवीमि तद्वृत्तं तद्गुणाकृष्टमानसः ॥ १२ ॥ १२. अतएव उसके असीम प्रसाद की निष्कृति ( निरन्तर ) की अभिलाषा से, उसके गुणों द्वारा आकृष्ट-मन होकर में उसका वृतान्त वर्णन करता हूँ । [१ : १ : १० - १४ एकया तद्गुणाख्यानं जिह्वया वर्ण्यते कियत् । रोमवत् कोटिशश्चेत् स्युस्तास्तदा मद्गिरः क्षमाः || १३ ॥ १३. केवल एक जिह्वा से उसका गुणाख्यान कितना किया जा सकता है ? रोमवत् यदि - जिह्वाएँ हों तब मेरी वाणी समर्थ हो सकती है । सत्यं नृपाम्बरेऽमुष्मिन् विपुले विमलाशये । गुणतारापरिच्छेदे न शक्ता भारती मम ॥ १४ ॥ १४. विपुल एवं विमलाशय, इस नृपाकाश, जिसमें गुण ताराओं के विवेक ( सीमा निर्धारण-विभाजन) करने में, वास्तव में मेरी वाणी समर्थ नहीं है । रा० : १ : ६) । जोनराज द्वारा लिखित राजतरंणियों की जो प्रतिलिपियाँ मिली है, उनके इतिपाठ में 'राजतरंगिणी' ही लिखा है । राजावली से तात्पर्य इतिहास ग्रंथों से है । पाद-टिप्पणी : १०. (१) स्मरण श्रीवर पण्डित ने निरहंकार भाव प्रकट किया है । वह अपने ग्रन्थ को काव्य नही मानता । उसकी कामना है कि सुयोग्य पण्डितजन इस राज- वृतान्त के आधार पर, ललित काव्य-रचना द्वारा साहित्य भण्डार पूर्ण करें । वह अपने आश्रयदाता जैनुल आब्दीन का वृतान्त केवल इसलिये लिपि - बद्ध कर रहा था कि ऐसा न हो कि वह भी अन्य राजाओं के समान विस्मृति सागर में डूब न जाय, जिस शंका को कल्हण (१ : १४) तथा जोनराज ( जोन ४, ५, ६) दोनों ने प्रकट किया है । पादटिप्पणी : ११. (१) हेम : श्रीदत्त ने होम यज्ञ अनुवाद किया है । यह पाठभेद के कारण हुआ है । 'हेम' का 'होमा' भी पाठभेद मिलता है । श्रीवर ने राजा के अनुग्रहों का वर्णन किया है । राजा श्रीवर को पुत्रतुल्य मानता था । उसने उसे सम्पत्ति, ग्राम, सुवर्ण आदि देकर अपना स्नेह प्रदशित किया था । दत्त का अनुवाद होम पूर्वाप्रसंगानुसार यहाँ बैठता नही ।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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