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________________ जैनराजतरंगिणी [१:१:३-५ वन्द्यास्ते राजकवयः पदन्यासमनोहराः। ख्याता ये सरसैः शब्दैः क्षीरनीरविवेकिनः ।। ३ ॥ ३. पदन्यास के कारण मनोहारी, क्षीर-नीर विवेकी, वे राजकवि' वन्दनीय हैं, जो सरस शब्दों के कारण प्रख्यात हुये हैं। अनित्यतान्धकारेऽस्मिन् स्वामिशन्ये महीतले । काव्यदीपं विना कः स्याद् भूतवस्तुप्रकाशकः ॥ ४ ॥ ४. अनित्यता रूप अन्धकार से युक्त, स्वामिशन्य, इस महीतल पर, काव्य-दीपक के अतिरिक्त, कौन अतीत' वस्तु को प्रकाशित कर सकता है ? येषां करोमि वपुरस्थिरमत्र राज्ञां तेषामयं जगति कीर्तिमयं शरीरम् । आकल्पवर्ति कुरुते किमितीव रोषाद् धाताहरद् ध्रुवमतः कविजोनराजम् ॥५॥ । ५. मैं जिन राजाओं के नश्वर (अस्थिर) शरीर की रचना करता हूँ, यह उन्हीं के कीर्तिमय' शरीर को जगत में कल्प पर्यन्त स्थायी करता है। इसीलिये मानो क्रोध से विधाता ने कवि जोनराज को हर लिया। हुये । उनके शरीर से अर्धनारी-नटेश्वर उत्पन्न हुए। था। उसके समय तथा उसके पूर्व अन्य राजकवि हुये (शिव : शत० : ३) । स्कन्द पुराण मे कथा है कि होंगे । उनका नाम नहीं देता। कल्हण निःसन्देह राजमहिषासुर-वध पश्चात् शंकर प्रसन्न होकर, पार्वती के कवि नही था। प्राचीनकाल मे राजा तथा सुलतान पास अरुणाचल पर आये। पार्वती शंकर के वामांग लोग अपनी सभा तथा दरबार मे श्रेष्ठ कवियों को रखते ' में लीन हो गयीं । वही रूप अर्धनारीश्वर है। (स्कन्द० थे। उन्हें राजकवि की उपाधि दी जाती थी। आज १:२:३-२१)। भी यह प्रथा प्रचलित है। राजकवि के स्थान पर पाद-टिप्पणी राष्ट्रकवि शब्द प्रचलित हो गया है। ब्रिटेन में ३. (१) राजकवि : यहाँ राजकवि शब्द से उन्हे 'पोएट लारिएट' कहते है। राजहंस अर्थ प्रतिभासित होता है। पदन्यास अर्थात् न पाद-टिप्पणी: कदम रखने के कारण मनोहारी एवं नीर-क्षीर-विवेकी ४. (१) अतीत : कल्हण के (१ : ४) श्लोक राजहंस जिस प्रकार प्रशस्य है उसी प्रकार युक्त कवि के भाव की छाया उक्त श्लोक मे मिलती हैभी पदन्यास, शब्द विन्यास, शब्द रखना, कदम रखना, कोऽन्यः काल मतिक्रान्तं नेतु प्रत्यक्ष तां क्षमः । पग बढ़ाना। कवि चतर है शब्दों को रखने और कवि प्रजापती स्त्यक्त्वा रम्य निर्माणशालिनः॥ हंस चतुर है पगों के रखने में। हंस की चाल क्षीर- पाद-टिप्पणी: नीर- ववेकी उचित एवं अनुचित का विवेकी होता है। ५. (१) कीति : 'कीर्तिमयं शरीर' यही भाव जोनराज राजकवि था। उसकी प्रशंसा श्रीवर ने कल्हण के श्लोक (रा० : १ : ३) में है। कल्हण ने (जैन० : ५, ६, ७) किया है । श्रीवर स्वयं राजकवि 'यशःकायः' शब्द का प्रयोग किया है। कीति का
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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