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________________ (४९) - भावार्थ-जंबूद्वीपविौं छत्तीस लवण समुद्रविर्षे एक सौ गुणतालीस धातकी खण्डविथें एक हजार दश कालोदकविर्षे इकतालीस हजार एक सौं वीस पुष्करार्धविर्षे तरेपन हजार दोयसै तीस ध्रुवतारे हैं। ते कबहूं अपने स्थानते गमन नाहीं करै हैं । जहाँके तहां स्थिररूप रहे हैं ।। ३४७॥ आज ज्योतिषी समूह निकै गमनका क्रम विचार हैंसगसगजोहगणद्धं एक भागलि दीवउवहीणं ॥ एके भागे अद्धं चरंति पंतिकमेणेव ॥ ३४८ ॥ स्वकस्वकीयज्योतिर्गणा एकस्मिन भागे द्वीपोदधीनाम् ॥ एकस्मिन् भागे अर्धं चरति पंक्तिक्रमेणैव ॥ ३४८ ॥ अर्थ-अपना अपना ज्योतिषी गणका अर्ध तो दीप समुद्रनिका एक भागविखें भर एक भागवि पंक्तिका अनुक्रमकरि विरें हैं। भावार्थ-जिस द्वीप वा समुद्रवि जेते ज्योतिषी हैं तिनविर्षे आधे ज्योतिषी तो तिह द्वीप वा समुद्र का एक भागवि गमन करें हैं आधे एक भाग विर्षे गमन करै हैं । ऐसे पंक्ति लिएं गमन जाननां ॥३४८॥ ___ भाग मानुषोत्तर पर्वततै परे चंद्रमा सूर्यनिके भवस्थानका अनुक्रम निरूपें है मणुसुत्तरसेलादो वेदियमूलादु दीवउवहीणं ॥ पण्णाससहस्सेहि य लक्खे लक्खे तदो वलयम् ॥ ३४९ ॥ मानुपोत्तरशैलात वेदिकामूलात द्वीपोदधीनाम् ॥ पंचाशत्सहस्त्रैश्च लक्षे लक्षे ततो वलयम् ॥ ३४९ ॥ अर्थ-मानुषोत्तर पर्वत परै अर द्वीप समुद्रनिकी वेदिनिके परै तौ . . पचास हजार योजन जाइ प्रथम वलय है । बहुरि तिस प्रथम वलयतें पैरें लाख लाख योजन पर जाइ द्वितीयादिक वलय है । भावार्थ - मानुषोत्तर
SR No.010018
Book TitleJain Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankar P Randive
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year1931
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size7 MB
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