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________________ (:२९) अथवा प्रेरणा करिये सो काल है। ताको विस्तारकरि निर्णय मागामी कहेंगे ॥ २ ॥ वार्तिक प्रदेशप्रचयामावादस्तिकायेष्वनुपदेशः ॥ ३ ॥ टीका-प्रदेशप्रत्योहि कायः । स एषामस्ति ते मस्तिकाया इति जीवादयः पंचैवोपदिष्टाः । कालस्य त्वेकप्रदेशत्वादस्तिकायनाभावः । यदिपस्तित्व मेवास्य न स्यात् षद्रव्योपदेशो न युक्तः स्यात् कालस्यहि द्रव्यत्वमस्त्या. गमे परवक्षणाभावः स्वलक्षणोपदेशसदापात् ।। . बर्थ-निश्चय करि प्रदेशनिको प्रचय जो है सो काय है । भर नाकै काय है सो भस्तिकाय है । यात जीवादिक पाचही भस्तिकायरूप उपदेशा किया मर फालकै एकपदेशपणांत मस्तिकायपण को मभाव है। भर जो निश्चय करियाको अस्तित्व ही नहीं है तो षट्द्रव्यको उपदेश युक्त नहीं है । यात निश्चयकरि कालकै द्रव्यपणौँ आगम विष है। क्योंकि पर जे जीवादिक तिनका लक्षणको अभाव अर अपना लक्षणका उपदेशको सद्भाव है यातॆ ॥ १३ ॥ १४ ॥ मैं पनरमा सूत्रको उत्थानिका कहै हैं - इतरत्र ज्योतिषामवस्थाप्रतिपादनार्थमाह मर्य-मानुवोत्तर पर्वतकै बाहिरका क्षेत्रमें ज्योतिषीनिकी व्यवस्था का प्रतिपादनकै अर्थ कहै है । सत्र ॥बहिरवस्थिताः ॥१५॥ टीका-बहिरित्युच्यते कुतो बहिः । नृगेकात् कथमवगम्यते अर्थपशाद्विमक्तिपरिणाम इति । - अर्य-मनुष्यक्षेत्र बाहिर ज्योतिषी हैं तें यथाव्यवस्थित है। या सत्रमैं बहिर पद कहिये है-तातै प्रश्न करिये है कि-काहेरौं बाहिर - है। उत्तर-मनुष्य लोकतें माहिर है सो यथावस्थित है ॥ प्रश्न कैसे जानिये है कि या सूत्रमैं ज्योतिषीनिकोही मनुष्यलोकते बाहिर
SR No.010018
Book TitleJain Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankar P Randive
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year1931
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size7 MB
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