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________________ - ज्योतिष्काः सूर्याचंद्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाच ॥१२॥ हिंदी अर्थ:--सूर्यचंद्रमाग्रइनक्षत्रप्रकीर्णक तारा ए पांच भेदरूप ज्योतिष्कदेव है। वार्तिक-योतनस्वभावत्वाज्ज्योतिकाः ॥११॥ संस्कृत टीका:घोतनप्रकाशनतमभावत्वादेपपिचानामपि विकल्पानां ज्योतिष्का इतीयमन्वर्था सामान्यसंज्ञा तस्याः सिद्धिः ॥ अर्थ-चोतन प्रकाशन स्वभावपणातै इनि पंच विकल्पनिकी ज्योतिष्क संज्ञा । ऐसैया सार्थक सामान्य संज्ञा तिनकी सिद्धि है। ___ वार्तिक-ज्योतिःशब्दात्स्वार्थे के निष्पत्तिः । टीका-ज्योतिः शन्दात्स्वार्थ केसति ज्योतिप्का इति निप्पद्यते कथं । यवादिपु पाठात् । अर्थ-ज्योतिःशब्दतै स्वार्थकैविय क प्रत्ययनैं होतां संता ज्योतिष्क ऐसो उत्पन्न हो हैं । प्रश्न-स्वार्थमैं क प्रत्यय कैसे होयहै । उत्तरयवादिपुपाठतें होय है ॥ २॥ वार्तिक-प्रकृतिलिंगानुवृत्तिप्रंसग इति चेनातिवृत्तिदर्शनात् ॥ ३ ॥ टीका-स्यान्मतंयदिस्वार्मिकोयकः ज्योतिःशब्दस्य नपुंसकलिंगस्वाकान्तस्यापि नपुंसकलिंगता प्रामोतीति तन्न किंकारणमतिवृत्तिदर्शनात् प्रकृतिलिंगातिवृत्तिापिटश्यते । यथा कुटीरः समीरः शुण्डार इति । अर्थ, प्रश्न-जो यो स्वार्थिक कः प्रत्यय है तोज्योति शब्दकै नपुंसक लिंगपणांते ककारांत ज्योति शब्दकभी नपुंसकलिंगपणांकी प्राप्ति होय है। उसर-सो नहीं है । प्रश्न-कहा कारण । उत्तर-अतिवृत्तिका दर्शनते कि प्रकृति लिंग अतिवृत्ति कहिये उल्लंघनकरि प्रवर्तनको दर्शनकरिये है यात सो जैसे कुटीरः शुंहारः इनमैं कुटी सभी शुहा शब्दका सीलिगवाची है। पर अल्प अर्थमें रः प्रत्यय होत सते कुटीरा समीरा शुडारा
SR No.010018
Book TitleJain Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankar P Randive
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year1931
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size7 MB
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