SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१५) - जेहा ताओं पुह पुह परिवारचंदुस्सहस्सदेवीण ॥ : परिवारदेविसरिसं पत्तेयमिमा विउव्यन्तिः ॥ ४४८ ॥ ज्येष्ठाता पृथक् पृथक् परिवारचतुः सहस्रदेवीनाम् ।। परिवारदेवीसदृशं 'प्रत्येकमिमाः विकुर्वन्ति ॥ ४४८ ॥ अर्थ-ते ज्येष्ठ कहिए पट्ट देवी पृथक् पृथक् च्यारि हजार परिवार देवनिकी हैं। भावार्थ:-च्यारि च्यारि हजार परिवार देवांगनानिकी एक एक पट्ट देवांगना है। बहुरि इस परिवार देवी समान संख्याकों प्रत्येक विक्रिया करै हैं । स्पष्टीकरण:- एक एक पट्टदेवांगना. विक्रिया करै तौ च्यारि हजार हो हैं ।। ४ ४८॥ . थाज्योतिष्क देवांगनानिक आयु प्रमाण कहै हैंजोइसदेवीणाऊ सगसगदेवाणमय होदि ॥ सव्वणिगिसुराणां बत्तीसा होंति देवीओ ॥ ४४९ ।। ज्योतिष्कदेवीनामायुः स्वकस्वकदेवामधं भवति ॥ सर्वनिकृष्टसुराणां द्वात्रिंशत् भवंति देव्यः ॥ ४४९ ॥ - अर्थ-ज्योतिष्क देवांगनाका, आयु · अपने अपने भार देवनिका आयुतै अर्घप्रमाण जाननां । बहुरि इहां सर्वते निकृष्ट हीन पुन्यवान देवतिनकै बत्तीस देवांगना हो हैं। मध्यविर्षे यथायोग्य देवांगनानिकी संख्या जाननी ॥ ४१९॥ आरौं भवनत्रिकविर्षे जे जीव उपजें है तिनकौं कहैं हैं., . उम्मग्गचारिसणिदाणणलादि मुदा अकामणिज्जरिणो ॥ - कुदवा सबलचारित्ता भवणतियं जंति ते जीवा ।४५०॥ : उन्मार्गचारिणः सनिदाना: अनलादिमृता अकामनिर्जरिणः ।। कृतपसः शबलचारित्रा भवनत्रये यांति ते जीवाः ॥ ४५.॥
SR No.010018
Book TitleJain Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankar P Randive
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year1931
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy