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________________ (१४८) अद्धिका, हिरणका मस्तक, दीपक, तोरण, छत्र, बंबई, गऊका मूत्र, शरफायुगल, हाथ, कमळ, दीपक ॥ ४४२ ॥ अधियरणे वरहारे वीणासिंगे य विच्छिए सरिसा ।। दुक्कयवावीहरिगजकुंभे मुरवे पतंतपक्खीए ॥ अधिकरणे वरहारे वीणाश्रृंगे च वृश्चिकेन सदृशाः ॥ दुष्कृतवापीहरिगजकुम्भेन मुरजेन.पतत्पक्षिणा ॥ ४४३ ॥ मर्थः- पहिरिणी, उत्कृष्टहार, वीणाका शृंग, वीछू जीर्णा वावडी, सिंहका कुंभस्थल, मृदंग, पडतापंखी ॥ ४४३ ॥ सेणागयपुव्वावरगत्ते णावाहयस्स सिरसरिसा ॥ . चुल्लीपासाणणिमा कित्तिय आदीणि रिक्खाणि ॥४॥ सेनागजपूर्वावरगाने नावाहयस्य शिरसाः सदृशाः ॥ 'चुल्लीपाषाणनिमाः कृत्तिकादीनि ऋक्षाणि ॥ १४ ॥ मर्थ:-सेना, हस्तीका मागिला शरीर, हस्तीका पाछिला शरीर, नाष, घोडेका मस्तक, चुल्हाको पाषाण समान कारकों धरै हैं तारे जिनके ऐसे कृत्तिकादि नक्षत्र जानने ॥ ४४४ ॥ . . . भाग कृत्तिकादि नक्षत्रनिके परिवाररूप तारानिकों कहैं हैंएकारसयसहस्सं सगसगतारापमाणसंगुणिदं ॥ परिवारतारसंखा कित्तियणक्खत्तपहुदीणं ॥ ४४५ ॥ एकादशशतसहस्र स्वकस्वकताराप्रमाणसंगुणितम् ।। परिवारतारा संख्या कृत्तिका नक्षत्रप्रभृतीनाम् ॥ ४४५ ॥ ' अर्थ:--ग्यारह अधिक-एकसौ सहित एक हजारकौं अपने अपने तारानिका प्रमाणकरि गुणे जो प्रमाण होइ सो कृतिका नक्षत्र मादि नक्षत्रनिको परिवाररूप तारेनिकी संख्या जाननी। ' ' . .
SR No.010018
Book TitleJain Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankar P Randive
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year1931
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size7 MB
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