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________________ (११३) गै द्वीप चार क्षेत्रवि पूर्वोक्तपनका पंद्रह हजार पाँचस इकावन. वां भाग प्रमाण उदय मश रहे इनका पूर्वोक्त प्रकार क्षेत्र किएं चौदह हजार छसै छप्पनका च्यारिसै सत्ताईस योजनका च्यारिसै सत्ताईसवां भाग प्रमाण होइ याने पचीस योजन अर एक सौ तहेतरिका च्यारिसै सत्ताईसवां भागका समन्छेद किए चौदह हजार दोयसै चौसठिका च्यारिसै सत्ताईसवां भाग होइ सो अहिकरि दशवां अंतरालवि देना ऐसे पैतीसै योजन पर दोयसै चौदहका च्यारिसे सत्ताईसवां भाग प्रमाण दशवां अंतराल संपूर्ण हो है। बहुरि अवशेष तीनसै वाणवै योजनका च्यारिसै सत्ताईसवां भाग प्रमाण रया । ताको सातकरि अपवर्तन किए छप्पनका इकसठियं भाग प्रमाण होई सो यहु अभ्यंतर पथव्यासविष देना । इसविर्षे चंद्रमाका उत्तरायणविर्षे पांच उदय हैं । इहां ऐसा भावार्थ जानना-चंद्रमाका पथव्यास अंतरादिकका स्वरूप प्रमाण तो पूर्वोक्त जाननां । तहां लवण समुद्रका अर क्षेत्रवि प्रथम बाह्य पथव्यास हैं। ताफै अभ्यंतरवर्ती मागै आगै प्रथम अंतर है । ताके आगें द्वितीय पथव्यास है ताकै आगे द्वितीय अंतर है। ऐसे क्रमतें नवमां अंतरकै आगै दशवां पथव्यास है। ताकै याग दोय योजन भर इकतालीसका च्यारिस सत्ताईसवां भाग प्रमाण क्षेत्र अवशेष रह्या । बहुरि माग द्वीप चार क्षेत्रवि तेतीस योजन अर एकसो तहेतरिका च्यारिसै सत्ताइसवां भाग प्रमाण क्षेत्र ग्राहि पर समुद्रका अवशेष क्षेत्र ग्रहि दशवां अंतरालको दिएं समुद्र अर द्वीपकी संधि वि दशवां अंतराल संपूर्ण हो है। ताकै आगै ग्यारहवां पथव्यास है ताकै आगें ग्यारहवां अंतराल है। ऐसै क्रमतें अंतविर्षे चौदहवां अंगके आगे पंद्रहवां अभ्यंतर पथव्यास है। ऐसे इन पंद्रह पथव्यासनिवि पंद्रह उदय हैं । तिनिविष समुद्र संबंधी प्रथम व्यास विर्षे जो उदय है सो दक्षिणायन संबंधी ही है।
SR No.010018
Book TitleJain Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankar P Randive
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year1931
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size7 MB
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