SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १०९ ) अठारहवां अंतरालकै आगे एकसौ उगणीसवां पथव्यास है अवशेष सत्तरि योजनका इकसठवां भाग प्रमाण क्षेत्र रहे है । बहुरि वेदिकाका चार क्षेत्र विषै बावन योजनका इकसठवां भाग ग्रहि तामै मिलाएं समुद्र वेदिकाकी संधिविषै एकसौं उगणीसवां अंतराल हो है, ताके आगे एकसौ वीसवां पथव्यास है । a gaat areai अंतराल है ताकै आगे बाईस योजनका इकसठिवां भाग प्रमाण क्षेत्र अवशेष रहे हैं । बहुरि द्वीपचार क्षेत्रविपैं छवीस योजनका इकसठवां भाग ग्रहि तामें मिलाएं एकसौ इकईसवां पथव्यास हो । तार्के आगे एक्सौ इकसवां अंतर है ऐसें कमतें अंतर्विषै एकसौ तियासीवां अंतरके आगे एकसौ चौरासीवां पथव्यास है तहां एकसौ चौरासी पथवास प्रमाण उदयनिविपैं वाह्य वीथीका उदय पूर्वदक्षिणायणविषै गिनिए हैं । पर लगता तहां उदय न होई ता समुद्रका आदि उदय घटाए उत्तरायणविषै सूर्यके उदय एकसौ तियासी ऐसें जाननें । + उदयादिका स्वरूप पूर्वोक्त कहा ही था । बहुरि चंद्रमाका भी ear भेद किए विना द्वीप चार क्षेत्र १८० विषै पांच उदय भर समुद्र ४८ ६१ चार क्षेत्र ३३० वि दश उदय हैं मिलिकरि पंद्रह उदय हो । आगे दक्षिणायणवि कहें हैं। अथवा " रापिंडहीणे " इत्यादि पूर्वोत सूत्रकरि चंद्रमाका दिनगति क्षेत्र पंद्रह हजार पांचसे इकावन योजनका च्यारिसें सताईसर्वा भाग प्रमाण है सो इतना १५५१ क्षेत्रविषै जो एक ४२७ उदय होय तो एक सौ अस्सी योजन प्रमाण द्वीप चार क्षेत्रवि कितने उदय होंहि ऐसें त्रैराशिक किए चारि उदय पाए ।
SR No.010018
Book TitleJain Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankar P Randive
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year1931
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy