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________________ ( १०७ ) भागे उत्तरायणवि कहें हैं:-- aण समुद्र रवि त्रिसहित चार क्षेत्र तीनसे तीस योजन भर तालीस इकसठियाँ भाग प्रमाण है ताका समच्छेद करि जोडे बीस हजार एक सौ rasafter reafaai भाग प्रमाण होइ २०१७८ बहुरि एक सौ सतरिका इकसठिवां भाग क्षेत्रकी एक दिनક્ गति शलाका होई तौ बीस हजार एकसौ अठहतरिका इकसठिवां भागको केसी होइ ऐसें शशिक किए एक सौ अठारह दिनगति शलाका होइ | भर एकसौ सत्तरियां भाग अवशेष रहें इहां एक घाटि दिनगति शलाका प्रमाण उदय एक सौ सतरह है । काहेतें ! नातें बाल पत्र संबंधी उदय दक्षिणायन संबंधी है सो इढ न गिन्यां । बहुरि अवशेष एकसौ जठारहका एकसौ सतरियाँ भाग प्रमाण दम अंशनिका पूर्वोक्त प्रकार क्षेत्र किएं एक सौ अठारह योजनका इक्सठिवां भाग प्रमाण क्षेत्र अवशेष रह्या, तिस विथी अठतालीस arater shafai भाग प्रमाण तौ भागिला पथन्यासविषै देना, तहाँ पन्यासविषै एक उदय है । पर पूर्वे एकसौ सतरह उदय मिलि उत्तरायणविषं समस्त उदय लवणसमुद्रविर्षे एक सौ अठारह हो है । महरि भवशेष सतरि योजनका इकसठिवां भाग प्रमाण क्षेत्रलवण समुद्र र सो अगला अंतविष देनां ऐसें समुद्र चार क्षेत्र समाप्त भया । बहुरि कयारि योजन प्रमाण वेदिका क्षेत्रविषै पूर्वोक्त प्रकार त्रैराशिककर air rs उदय हो है । और अवशेष चौतरि योजनका इकसठवां भाग प्रमाण क्षेत्र रहे है । तिहविषै बावन योजनका इकसठिवां भाग प्रमाण क्षेत्रकौं समुद्रका अवशेष क्षेत्रविषै मिलाएं दोय योजन प्रमाण अंतर संपूर्ण हो है । इस अंतर लागें एक दिनगसि
SR No.010018
Book TitleJain Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankar P Randive
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year1931
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size7 MB
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