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________________ ( ९५ ) भाग तामैं पूर्वोक्त चक्षुःस्पर्शाध्वाका प्रमाण ४७२६३ घटाइए अव शेष जो प्रमाण रहै ॥ ३८९ ॥ सो गाथा हें हैं: इगिवीस छदालयसं साहिय मागम्म णिसहउचरिमिणो || दिस्सदि अउज्झमझे ते णूणो णिसहपासभुजो || ३९० ॥ एकविंशतिपट्चत्वारिंशच्छतं साधिकं आगत्य निषधोपरि इनः eted अयोध्यामध्ये ते नोनः निपधपार्श्वभुजः ॥ ३९० ॥ अर्थ : - इक्वीस एकसौ छियालीस अंक क्रमकरि चौदह हजार छसे इकइस तौ योजन भर साधिक कहिए किछू अधिक कितनां चक्षुस्पर्शध्वानका अवशेष सातका विसवां भागको निषेध चापका अव शेष नवा उगणीसवां भागविषै समछेद विधानकरि १३३१८० घटाएं २००३८० तालीका तीन सवां भाग ४७ मात्र अधिक जाननां । सो निषध ३८० कुलाचल के ऊपर इतने १४६२१ । ४७ उ आइ करि सूर्य है सो ३८० अयोध्या के मध्य मत पुरुषनिकरि देखिए हैं । भावार्थ. प्रथम वीथी विषै भ्रमण करता सूर्य सो निषेध कुलाचलका उत्तर तटतैं चौदह हजार छसे इकईस योजन अर सैंतालीस तोनसे अस्सीवां भाग उर आवै तत्र भरत क्षेत्रविषै उदय हो है । अयोध्यांके वासी महंत पुरुषनिकरि देखिए हैं । बहुरि निषधकी पार्श्वभुजा वीस हजार एकसै छिनवै योजन प्रमाण तामैं निषध उ आइ सूर्य देखनेका जो प्रमाण कला १४६२१ । ४७ ताकौं घटाइएं ॥ ३९० ॥ ३८० ---
SR No.010018
Book TitleJain Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankar P Randive
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year1931
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size7 MB
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