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________________ (९२ ) आगे जिनका प्रमाण समान नाहीं ऐसी जु अभ्यन्तरादि परिधि तिनकौं समान कालकरि कैसे समाप्त करें हैं सो कई हैं णीयंता सिग्धगदी पविसंता रविससी दु मन्दगदी । विसमाणि परिरयाणि दु साहति पमाणकालन ।। ३८६ ॥ निर्यातौं शीघ्रगती प्रविशतो रविशशिनौ तु मंदगती ॥ विषमान परिधीस्तु साधयतः समानकालेन ॥ ३८७ ॥ अर्थ-सूर्य अर चंद्रमा ए निकसते हुए ज्यों ज्यों अगली परिधिकौं प्राप्त हुए त्यो त्यों शीघ्र गमनरूप हो हैं उतावले चले है । बहुरि पैसते हुए ज्यौं ज्यौं माहिली परिधिनिकों प्राप्त होइ त्यो त्यो मंद गमनरूप हो है धीरे चले हैं । ऐसे होइ समानकालकरि विपम प्रमाणको लिएं जू अभ्यंतरादि परिधि तिनको समाप्त करें हैं गमनकरि साधे हैं ॥३८॥ भाग तिन सूर्य चंद्रमानिका गभन विधान दृष्टांत मुखकार कहे हैं गय हय केसरि गमणं पढमे ममंतिम य सूरस्स ॥ .. पडिपरिहिं रविससिणो मुहत्तगदिखेत्तमाणिज्जो ॥३८८॥ गजहरिकेसरि गमनं प्रथमे मध्ये अंतिमे च सूर्यस्य ।। प्रतिपरिधि रविशशिनोः मुहूर्तगतिक्षेत्रमानेयम् ॥ ३८८ ॥ अर्थ-गज घोटक केशरी गमन प्रथम मध्य अंतविर्षे सूर्य चंद्रमाके होहै । भावार्थ-सूर्य चंद्रभा अभ्यंतर परिधिविर्षे हस्तीवत् मंद गमन करें हैं, बहुरि मध्य परिधिविर्षे घोटकवत् 'तातें शीघ्र करें हैं । वहरि बाह्य परिधिवि. सिंहवत अति शीघ्र गमन करै है। - बहुरि अब सूर्य चंद्रमानिके परिघि परिधि प्रति एक मुहर्तविष गमनका प्रमाण ल्यावनां । कैसे सो.कहिए हैं-तहां सूर्यका परिधिविर्षे भ्रमणकी समाप्तताकी काल साठि मुहूर्त है। बहुरि अभ्यन्तर परिपिका प्रमाण तीन लाख पंद्रह हजार निवासी योजन है सो सूर्यके साठ मही
SR No.010018
Book TitleJain Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankar P Randive
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year1931
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size7 MB
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