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________________ (८६ ) २ रब्धराशि ३३३३३.२ को दोऊ पार्श्वनिकों ग्रहणके अर्थिदणा करि ६६६६६४ जंबूद्वीपके व्यास १००००० वि मिलाए एक लाख छासठि हजार छसै छासठि योजन पर अपवर्तन किए दोयका तीसरा भाग प्रमाण जल षष्ठ भागका व्यास हो है। .. अब इस पांचौं व्यासनिकों-'विखं भवागदहगुणकारिणीवट्टस परिहियं होदि " इस करणसूत्रकरि परिधि का प्रमाण ल्याइये तब मेरुगिरिका परिघि इकतीस हजार छसे वाईस योजन ३१६२२ अभ्यंतर वीथीका परिधि तीन लाख पंद्रह हजार निवासी योजन, मध्यम वीथीका परिधि तीन लाख सोलह हजार सातसे योनन, बाह्य वीथीका परिधि तीन लाख अठारह हजार तीनस चौदह योजन, जल षष्ठ भागका परिषि । पांच लाख सत्ताईस हजार छियालीस योजन प्रमाण है. ऐसे परिधिका प्रमाण ल्याइ इन परिधिनिवि जो विवक्षित परिधि होइ ताको साठिका भाग दिएं पांचसै सत्ताईस योजन पर एकका तीसवां भाग प्रमाण हो । बहुरि जिस मास विर्षे सूर्य तिष्ठ तिस मास संबंधी दिन रात्रिके मुहर्तनिका अठारहसौं लगाय बारहपर्यंत प्रमाण १८ । १७ । १६ । - १५ । १४ । १३ । १२ तिहकर गुणिर । जैसे पूर्वोक्त प्रमाण ५२७२ को अठारह करि गुणें चौराणवैसै छियासी योजन अर अठारहका तीसवां भागौं छहकरि अपवर्तन किए तिनका पांचवा भाग प्रमाण होह ९४८६ ऐसे किए जो जो प्रमाण आवै सो नाप तमका विषयभूत क्षेत्र जाननां । भावार्थ - मेरुगिरिका परिधि इकतीस हजार छसै वाईस योजन है ३१६२२ तीइदि३ श्रावण मासिविर्षे जहां मंठारह मुहकी रात्रि
SR No.010018
Book TitleJain Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankar P Randive
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year1931
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size7 MB
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